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गाथा ३८
हैं और अन्य मिथ्यादृष्टि पुरुषों की सभा है, उनको नृत्य दिखलाते हैं। नृत्य करनेवाले जीव-अजीव पदार्थ हैं और दोनों का एकपना, कर्ताकर्मपना आदि उनके स्वांग हैं। उनमें वे परस्पर अनेकरूप होते हैं, आट रसरूप होकर परिणमन करते हैं; सो वह नृत्य है।
वहाँ सम्यग्दृष्टि दर्शक जीव-अजीव के भिन्न स्वरूप को जानता है; वह तो इन सब स्वांगों को कर्मकृत जानकर शान्तरस में ही मग्न है और मिथ्यादृष्टि जीव-अजीव में भेद नहीं जानते, इसलिए वे इन स्वांगों को ही यथार्थ जानकर उसमें लीन हो जाते हैं । उन्हें सम्यग्दृष्टि यथार्थस्वरूप बतलाकर, उनका भ्रम मिटाकर, उन्हें शान्तरस में लीन करके सम्यग्दृष्टि बनाता है।
उसकी सूचनारूप में रंगभूमि के अन्त में आचार्य ने 'मज्जंतु ... इत्यादि' - इस श्लोक की रचना की है, वह अब जीव-अजीव के स्वांग का वर्णन करेंगे, इसका सूचक है; ऐसा आशय प्रगट होता है। इसप्रकार यहाँ तक रंगभूमि का वर्णन किया है।"
आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में आचार्य अमृतचन्द्र ने नाटकीय तत्त्व देखे। इसकारण उन्होंने आत्मख्याति टीका में उसे नाटक के रूप में प्रस्तुत किया। उनके इस नाटकीय प्रस्तुतीकरण को आचार्य जयसेन ने भी स्वीकार किया। पण्डित राजमलजी ने तो अपनी कलश टीका में इसे और भी अधिक उजागर किया। उन्हीं से प्रेरणा पाकर कविवर बनारसीदासजी ने समयसार की विषयवस्तु के आधार पर रचित अपने ग्रन्थ का नाम ही समयसार नाटक रखा है । पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने भी उसे उभारा है।
उक्त सम्पूर्ण विवेचन में जो नाट्यशास्त्रों की परम्परागत पद्धति का अनुसरण किया गया है ; वह तत्कालीन होने से आज के संदर्भ में पुरानी पड़ गई है; अत: आज के लोगों को सहज पकड़ में नहीं आती। समयसार और आत्मख्याति की नाटकीयता को समझने के लिए हमें