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कलश ३३
( सवैया इकतीसा ) जीव और अजीव के विवेक से है पुष्ट जो, __ ऐसी दृष्टि द्वारा इस नाटक को देखता। अन्य जो सभासद हैं उन्हें भी दिखाता और,
दुष्ट अष्ट कर्मों के बंधन को तोड़ता। जाने लोकालोक को पै निज में मगन रहे,
विकसित शुद्ध नित्य निज अवलोकता। ऐसो ज्ञानवीर धीर मंग भरे मन में,
स्वयं ही उदात्त और अनाकुल सुशोभता ।। ३३ ।। इस नाटक के रंगमंच पर उदित यह ज्ञान मन को आनंदित करता हुआ सुशोभित हो रहा है। यह ज्ञान जीव और अजीव के बीच भेदविज्ञान करानेवाली उज्ज्वल निर्दोष दृष्टि से जीव और अजीव की भिन्नता को स्वयं भी भली-भाँति जानता है और इस नाटक को देखनेवाले सभासदों को भी दिखाता है, उन्हें इनकी भिन्नता की प्रतीति उत्पन्न कराता है। ___ अनादि संसार से दृढ़ बंधन में बंधे हुए ज्ञानावरणादि कर्मों का नाश करके जो विशुद्ध हुआ है, स्फुट हुआ है, कली के समान विकसित हुआ है और जो सदा अपने आत्मारूपी बाग में, वन में ही रमण करता है; यमपि उसमें अनन्त ज्ञेयों के आकार झलकते हैं, तथापि जो उनमें नहीं रमता, अपने स्वरूप में ही रमता है, उस ज्ञान का प्रकाश अनन्त है और वह प्रत्यक्ष तेज से नित्य उदयरूप है।
वह ज्ञान धीर है, उदात्त है, धीरोदात्त है, अनाकुल है और मन को आनंदित करता हुआ सुशोभित है, विलास कर रहा है। - इस नाटक समयसार का खलनायक मोह है, मिथ्यात्व है, अज्ञान है और उस मोह को, मिथ्यात्व को, अज्ञान को नाश करनेवाला ज्ञान, सम्यग्ज्ञान, केवलज्ञान धीरोदात्त नायक है; जो नित्य उदयरूप है और