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कलश ३२
जिसप्रकार नटी (पातुर) रात्रि में वस्त्राभूषणों से सजकर नाट्यशाला में परदे की ओट में खड़ी हो जाती है तो किसी को भी दिखाई नहीं देती; किन्तु जब दोनों ओर के शमादान (दीपक) ठीक करके पर्दा हटाया जाता है तो सम्पूर्ण सभा के लोगों को साफ-साफ दिखाई देती है। उसीप्रकार ज्ञान का समुद्र आत्मा जो मिथ्यात्व के परदे में ढंक रहा था, वह प्रगट होकर तीन लोक को जानता-देखता है, त्रैलोक्य का ज्ञायक होता है।
श्रीगुरु कहते हैं कि हे जगवासी जीवो! ऐसा उपदेश सुनकर तुम्हें जगत के जाल से निकलकर अपनी शुद्धात्मा संभालना चाहिए।
इसप्रकार पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा के भावार्थ, पाण्डे राजमलजी की कलश टीका एवं बनारसीदासजी के नाटक समयसार के उक्त छन्द का मंथन करने पर ३२वें कलश के दो अर्थ स्पष्ट होते हैं । वे दोनों अर्थ सीधी, सरल और सपाट भाषा में इसप्रकार होंगे :__ (१) यह ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा विभ्रमरूपी परदे को हटाकर सर्वांग प्रगट हो गया है। अत: हे जगत के जीवों! लोकपर्यन्त उछलते हुए इस ज्ञानसागर के शान्त रस में सब एक साथ ही डुबकी लगावो, मग्न हो जावो।
(२) जिसप्रकार नाटक के रंगमंच पर नाचने के लिए तैयार सुसज्जित अभिनेता खड़ा हो, नाच रहा हो; पर अंधकार और परदे की ओट होने से सभाजनों को कुछ भी दिखाई नहीं देता; किन्तु पर्याप्त प्रकाश होने और परदा हट जाने पर सभी को सबकुछ दिखाई देने लगता है। उसीप्रकार ज्ञानसागर भगवान आत्मा मिथ्यात्व के अंधकार
और विभ्रम के परदे में छुपा हुआ है। मिथ्यात्व का अंधकार और विभ्रम का परदा हटने पर सबकुछ साफ हो जाता है, साफ-साफ दिखाई देने लगता है। अत: जगत के समस्त जीवों को चाहिए कि वे मिथ्यात्व का अंधकार दूर कर विभ्रम की चादर को हटाकर भगवान