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कलश ३२
अथवा इसका अर्थ यह भी है कि जब आत्मा का अज्ञान दूर होता है, तब केवलज्ञान प्रगट होता है और केवलज्ञान प्रगट होनेपर समस्त लोक में रहनेवाले पदार्थ एक ही समय ज्ञान में झलकते हैं; उसे समस्त लोक देखो ।"
स्वामीजी इस कलश का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
" जैसे अपने सामने बड़ा भारी समुद्र हो, किन्तु आँख व समुद्र के बीच चार हाथ की चादर हो तो समुद्र दिखाई नहीं देता । उसीप्रकार राग व पुण्यादिभाव मेरे हैं, इनमें ही मेरा अस्तित्व है; जबतक ऐसी मिथ्यात्वरूपी चादर की आड़ है, तबतक ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा दिखाई नहीं देता। चैतन्यस्वरूप से विपरीत राग, वह मेरा व एक समय की पर्याय वह मैं अबतक ऐसी जो पर्यायबुद्धि थी, वही विभ्रम था । जब भेदज्ञान से उस विभ्रम की चादर को दूर कर दिया, हटा दिया, विभ्रम का नाश कर दिया; तब भगवान आत्मा स्वयं सर्वांग प्रगट हो गया ।
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वस्तु तो ध्रुव है । ध्रुव प्रगट नहीं होता, वह तो प्रगट ही है । ध्रुव पर दृष्टि जाते ही मिथ्यात्व दशा का नाश हुआ और जैसा इसका शुद्धस्वरूप है, वैसा पर्याय में प्रगट हुआ अर्थात् शान्ति व अतीन्द्रिय आनन्द की निर्मल दशा प्रगट हुई । अन्दर पूर्णानन्द का नाथ चैतन्यभगवान ज्ञान व आनन्द से भरा हुआ है, उसकी दृष्टि होने पर सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की पर्याय प्रगट परिणमित हुई । '
आचार्यदेव ने सबको चूल का न्योता (आमंत्रण) दिया है। वे कहते हैं कि यह चैतन्यसिन्धु प्रगट हुआ है; इसलिए समस्त लोक अर्थात् सभी जीव उस आनन्दसागर में निमग्न हो जावो । तुम अतीन्द्रिय आनन्दगर्भित शान्त रस में अर्थात् वीतराग रस में एक ही साथ अत्यन्त मग्न हो जावो। ऐसे मग्न होवो कि फिर कभी इस आनन्द से बाहर निकलना होवे ही नहीं ।
१. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग- २, पृष्ठ १४८