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है; परन्तु उनरूप परिणमित नहीं होता; इसकारण अरूपी है। ध्यान - इसमें रूपादि को जानने का निषेध नहीं किया, अपितु उन्हें जानने की तो स्थापना की है; निषेध तो उनरूप परिणमित होने का
रहे
किया है।
गाथा ३८
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इस बात को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं
"देखो! स्पर्श, रस आदि का जो ज्ञान होता है, वह मेरे स्वयं से होता है, निमित्त से नहीं होता तथा स्पर्शादि निमित्त का अस्तित्व है, इसलिए मुझे ज्ञान होता है - ऐसा भी नहीं है । तत्संबंधी ज्ञानरूप से परिणमने की योग्यता मुझमें सहज स्वभाव से ही है ।
स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि को जानते हुए भी वे स्पर्शादि मुझमें आते नहीं है और मैं भी स्पर्शादिरूप से परिणमित नहीं होता। मेरा ज्ञान व स्पर्शादि भिन्न-भिन्न ही रहते हैं। ऐसा होने से मैं परमार्थ से सदा ही अरूपी हूँ ।"
इसप्रकार ज्ञानी विचारता है कि मैं क्रम और अक्रमरूप से प्रवर्तमान व्यवहारिक भावों से भेदरूप नहीं होता, इसलिए एक हूँ; व्यवहारिक नवतत्त्वों से भिन्न हूँ, इसलिए शुद्ध हूँ; सामान्य- विशेष उपयोगात्मक होने से ज्ञान-दर्शनमय हूँ और स्पर्शादिक को जानते हुए भी उनरूप परिणमित नहीं होता; इसलिए अरूपी हूँ तथा कोई भी परपदार्थ किंचित्मात्र भी मेरे नहीं हैं।
इसप्रकार सभी परपदार्थों से भिन्न निजस्वरूप का अनुभव करता हुआ मैं प्रतापवन्त वर्तता हूँ ।
आचार्यदेव स्वयं तो ज्ञानसागर आत्मा में डुबकी लगा ही रहे हैं । अब आगामी कलश के माध्यम से सम्पूर्ण जगत को भी आमंत्रण दे रहे हैं, प्रेरणा दे रहे हैं कि हे जगत के जीवो! तुम भी इस ज्ञानसागर १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग- २, पृष्ठ १४३