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समयसार अनुशीलन
विशेष उपयोगात्मकपने का उल्लंघन नहीं होने से मैं दर्शन - ज्ञानमय हूँ । त्रिकाली वस्तुपने ऐसा हूँ । '
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तत्वार्थसूत्र में उपयोग को जीव का लक्षण कहा है। वहाँ भी उपयोग को ज्ञान - दर्शनरूप ही कहा है और ज्ञानोपयोग के आठ तथा दर्शनोपयोग के चार भेद बताये हैं । यहाँ उपयोग के विशेष भेदों को न लेकर सामान्यरूप से ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग को लिया है और दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा को सामान्यज्ञानमय और सामान्यदर्शनमय कहा है ।
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प्रश्न - एक ओर तो आप दर्शन को सामान्य और ज्ञान को विशेष कहते हैं और दूसरी ओर यहाँ दर्शन और ज्ञान - दोनों को ही सामान्यरूप से लेने की बात कर रहे हैं ?
उत्तर – जहाँ दर्शन को सामान्य और ज्ञान को विशेष कहा जाता है, वहाँ उनके स्वरूप की बात होती है; क्योंकि दर्शन निराकार - निर्विकल्प होने से सामान्य कहा जाता है और ज्ञान साकार - सविकल्प होने से विशेष कहा जाता है और जहाँ यह कहा जाता है कि सामान्य दर्शन - ज्ञान लेना, उसका तात्पर्य यह होता है कि दर्शन- ज्ञान के भेदप्रभेदों को नहीं लेना, अपितु सामान्यरूप से ज्ञान दर्शन को ही लेना ।
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'अरूपी' विशेषण के साथ 'सदा' शब्द भी लगा है; जिसका आशय है कि आत्मा सदा ही अरूपी है। इस 'सदा' शब्द को अन्तदीपक मानकर सभी विशेषणों के साथ भी लगाया जा सकता है; जो इसप्रकार होगा मैं (भगवान आत्मा) सदा ही एक हूँ, सदा ही शुद्ध हूँ, सदा ही ज्ञान - दर्शनमय हूँ और सदा ही अरूपी हूँ ।
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इस अरूपी विशेषण में विशेष जानने की बात यह है कि आत्मा रूप, रस, गंध एवं स्पर्श को जानता है, उनके जाननेरूप परिणमित होता
१. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १४३