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समयसार अनुशीलन
उत्तर - यदि आपके चित्त में प्रश्न खड़ा होता है तो कोई चिन्ता की बात नहीं है । यह तो आपकी जागरुकता का प्रतीक है कि आप यह ध्यान रखते हैं कि यह शब्द वहाँ भी आया है और वहाँ इसका अलग अर्थ किया गया है।
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यदि एक ही आचार्य ने एक ही शब्द का विभिन्न स्थानों पर विभिन्न अर्थ किया है तो उसके रहस्य को समझने का प्रयत्न और भी अधिक गहराई से किया जाना चाहिए; क्योंकि उसमें उनका कोई विशेष आशय हो सकता है ।
३८वीं गाथा में व्यावहारिक नवतत्त्वों से भिन्नता को शुद्धता कहा गया है और ७३वीं गाथा में सकलकारकचक्र की प्रक्रिया से पार को प्राप्त निर्मल अनुभूतिमात्र को शुद्धता का आधार बनाया है । बात एकदम स्पष्ट है कि यहाँ पर से भिन्नता बताने के लिए पर से एकत्व और पर के प्रति होनेवाले ममत्व का निषेध है और कर्त्ता - कर्म अधिकार में पर के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का निषेध है। यही कारण है कि ३८वीं गाथा में व्यावहारिक नवतत्त्वों से भिन्नता को शुद्धता का आधार बनाया है और कर्ता-कर्म अधिकार की गाथा होने से ७३वीं गाथा में कर्ता, कर्म आदि कारकचक्र की प्रक्रिया से पार को प्राप्त निर्मल अनुभूतिमात्र को शुद्धता का आधार बनाया गया है।
एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का कहना भी व्यवहार है और एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का कर्ता कहना भी व्यवहार ही है । व्यवहार अशुद्धि है और निश्चय शुद्धि । दोनों ही स्थानों में व्यावहारिक भावों का निषेध है; अत: बात तो एक ही है, परन्तु अर्थ में जो अन्तर आया है, वह तो अधिकार परिवर्तन के कारण आया है ।
इसीप्रकार एक के संबंध में भी समझना चाहिए। ज्ञान-दर्शनमय में तो कोई अन्तर है ही नहीं ।