________________
समयसार अनुशीलन
342
इसप्रकार इस व्याख्या के अनुसार चिन्मात्र आकार के कारण समस्त क्रमरूप और अक्रमरूप से प्रवर्तमान व्यावहारिकभावों से भेदरूप नहीं होता – इसकारण एक हूँ का आशय यह हुआ कि मैं गुणस्थान और मार्गणास्थानरूप व्यावहारिकभावों से भेदरूप नहीं होता; इसकारण एक हूँ। तात्पर्य यह है कि दृष्टि का विषयभूत भगवान आत्मा गुणस्थानातीत है, मार्गणास्थानातीत है। एक शब्द की व्याख्या में आचार्य जयसेन तो मात्र इतना ही लिखते
"यद्यपि व्यवहारनय से नरनारकादि अनेक पर्यायरूप हूँ, तो भी शुद्ध निश्चयनय से टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभाववाला होने से एक हूँ।"
प्रश्न - शब्दों के अर्थ करने में आचार्यों में इसप्रकार की विभिन्नता क्यों पाई जाती है? क्या आचार्यों में परस्पर मतभेद है?
उत्तर - ऐसी कोई बात नहीं है। शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं, हो सकते हैं; अत: इसप्रकार की संभावनायें रहती ही हैं। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है । आचार्यों द्वारा किये गये विभिन्न अर्थ जबतक एक ही प्रयोजन को पुष्ट करते हों, तबतक तो कुछ सोचने की बात ही नहीं है; यदि प्रयोजन भी अलग-अलग भासित हो तो उनकी अपेक्षा को समझने का प्रयास करना चाहिए।
शुद्ध शब्द का अर्थ करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र शुद्धता का कारण व्यावहारिक नवतत्वों से भिन्नता को बताते हैं । उनके अनुसार नवतत्त्वों में छुपी हुई आत्मज्योति नवतत्त्वों से भिन्न है; इसलिए शुद्ध है । उसका नवतत्त्वरूप होना ही अशुद्धता है और नवतत्त्वों से भिन्नता ही शुद्धता है। ___आचार्य जयसेन नवतत्त्वों से भिन्नता को शुद्धता स्वीकार करते हुए भी अथवा के रूप में रागादिभाव से भिन्नता की बात भी करते हैं।