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प्रश्न –यह तो ठीक, पर यहाँ व्यावहारिक नवतत्त्वों से ज्ञायकभाव को अत्यन्त भिन्न कहा है; उसमें जीवतत्त्व का स्पष्टीकरण करते हुए नर-नारकादि जीव के विशेष ऐसा क्यों कहा?
गाथा ३८
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उत्तर – यह आत्मा स्वयं जीव तत्त्व है । अत: प्रश्न उपस्थित होता है कि इससे भिन्न ऐसा कौनसा जीवतत्त्व है, जिससे इस आत्मारूप जीवतत्त्व को भिन्न जानना है ?
इस प्रश्न के समाधान में कहा जा रहा है कि यह भगवान आत्मा तो निश्चयजीव है; इसे व्यवहारजीव से भिन्न जानना है और व्यवहारजीव नर-नारकादि पर्यायों सहित जीव को कहते हैं । अतः नरनारकादि पर्यायों वाले व्यवहारजीव से तथा अजीवादि पदार्थों से भिन्नता को शुद्धता कहा है ।
प्रश्न - व्यवहारजीव में अपने आत्मा से भिन्न परजीवों के ले लें तो क्या दिक्कत है?
उत्तर – दिक्कत है; क्योंकि परजीव व्यवहारजीव नहीं हैं। उन्हें तो यहाँ अपने चेतनत्व से भिन्न होने से अचेतन मानकर अजीव में. लिया गया है; क्योंकि जिनमें अपनी चेतना नहीं है, अपने ज्ञान - दर्शन नहीं हैं; वे सब अपनी अपेक्षा, अपने लिए अजीववत् ही हैं, अजीव ही हैं । अध्यात्म में इसप्रकार की अपेक्षा प्रचलित ही है ।
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'मैं दर्शन - ज्ञानमय हूँ' इस तीसरे विशेषण का जो अर्थ आचार्य अमृतचन्द्र ने किया है; उसे स्पष्ट करते हुए स्वामीजी लिखते हैं
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यह समझना
"चिन्मात्र कहने से 'मैं चैतन्यस्वभावमात्र हूँ' चाहिए। दया, दान, व्रतादि के विकल्परूप मैं नहीं हूँ, अल्पज्ञतारूप भी मैं नहीं हूँ तथा 'मैं दर्शन ज्ञानवाला हूँ' • ऐसा भेद भी मैं नहीं हूँ । मैं तो चिन्मात्र होने से दर्शन ज्ञानमय हूँ। यहाँ चैतन्यसामान्य दर्शन है व चैतन्यविशेष ज्ञान है। चैतन्यस्वभावी भगवान आत्मा का सामान्य
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