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समयसार अनुशीलन
किन्तु ज्ञानी धर्मात्मा यह अच्छी तरह जानते हैं कि ये धर्मादिद्रव्यरूप परपदार्थ मेरे नहीं हैं; क्योंकि ये मेरे स्वभाव से भिन्न हैं। मैं टंकोत्कीर्ण ज्ञायकस्वभावी हूँ, स्वयं के लिए अन्तरंगतत्त्व हूँ और ये मुझसे भिन्न बहिरंगतत्त्व हैं । आचार्यदेव कहते हैं कि भले ही ये ज्ञान में तदाकार होकर डूब रहे हों, अत्यन्त अर्न्तमग्न हो रहे हों, तथापि ये मेरे नहीं हैं ।
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दूसरी बात यह है कि यद्यपि स्व और पर दोनों एकसमय ही ज्ञान में ज्ञात हो रहे हैं; तथापि दोनों का स्वाद भिन्न-भिन्न है । भिन्न-भिन्न स्वाद के कारण मैं धर्मादि अजीवद्रव्यों एवं मेरे से भिन्न जीव द्रव्यों के प्रति पूर्णत: निर्मम हूँ; क्योंकि मैं एकत्व को प्राप्त होने से सदा ही ज्यों का त्यों स्थिर रहता हूँ। अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता ।
पर में से अपनापन टूटना, एकत्व टूटना और अपने में अपनापन आना, एकत्व आना ही ज्ञेयभाव से भेदविज्ञान होना है ।
परपदार्थ के पास जाये बिना और परपदार्थ भी पास में आये बिना ही ज्ञान का स्वभाव पर को जानने का है । पर इस जानने का पर के साथ कोई संबंध नहीं है; क्योंकि पर को जानना भी तो आत्मा का स्वयं का ही स्वभाव है ।
प्रश्न – यह क्या बात हुई, जब हमने पर को जाना और परपदार्थ हमारे जानने में आया तो ज्ञेय-ज्ञायक संबंध तो हो ही गया। आप इस ज्ञेय - ज्ञायक संबंध से क्यों इन्कार करते हो?
उत्तर – भाई, समझने की कोशिश करो! यद्यपि इसे ज्ञेय - ज्ञायक संबंध कहा जाता है; पर इसमें संबंध की क्या बात है ? ज्ञेय ज्ञेय में रहा, ज्ञान ज्ञान में रहा; ज्ञान ज्ञेय में नहीं गया और ज्ञेय ज्ञान में नहीं आया । जब दोनों पूर्ण स्वतंत्र ही रहे तो फिर किस बात का संबंध? केवली भगवान का लोकालोक से क्या संबंध है? यही न कि लोकालोक केवलज्ञान में झलकते हैं और केवलज्ञान लोकालोक को जानता है; पर इतने मात्र से केवली भगवान किसी के संबंधी तो नहीं हो जाते;