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समयसार अनुशीलन
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"सर्व परद्रव्यों से तथा उनसे उत्पन्न हुए भावों से जब भेद जाना; तव उपयोग के रमण के लिए अपना आत्मा ही रहा, अन्य ठिकाना नहीं रहा । इसप्रकार दर्शन-ज्ञान-चारित्र के साथ एकरूप हुआ वह आत्मा में ही रमण करता है - ऐसा जानना।"
यहाँ आचार्य अमृतचन्द्रदेव यह कहना चाहते हैं कि जब भावकभावों और ज्ञेयपदार्थों से आत्मा की भिन्नता भली-भाँति भासित हो गई; तब उपयोग को अन्यत्र भटकने का अवकाश ही नहीं रहा। इसकारण उपयोग अपने आप ही अपने में स्थिर हो गया। पर-पदार्थों से अपनापन टूट गया, अपने में अपनापन आ गया और उपयोग अपने में ही समा गया। इसप्रकार निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट हो गया, भगवान आत्मा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणत हो गया। ___३४ व ३५वीं गाथा में प्रत्याख्यान (त्याग) का स्वरूप सोहादरण स्पष्ट किया था। उसके बाद ३६ व ३७वीं गाथा में भावकभावों और ज्ञेयभावों से भिन्नता की भावना को भरपूर नचाया। परिणामस्वरूप परमार्थ प्रगट हो गया, आत्मा दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमित हो गया; स्वयं को जानकर, स्वयं में ही अपनापन स्थापित कर, स्वयं में ही समा गया; आत्माराम में ही प्रवृत्त हो गया। - यह बात इस कलश में स्पष्ट कर दी गई है। __ अब आगामी गाथा में यह स्पष्ट करेंगे कि इसप्रकार दर्शन-ज्ञानचारित्र-रूप परिणमित ज्ञानी धर्मात्मा अपने आत्मा के सन्दर्भ में क्या सोचता है, क्या विचारता है?
___ अपने में अपनापन आनन्द का जनक है, परायों में अपनापन आपदाओं का घर है; यही कारण है कि अपने अपनापन ही साक्षात् धर्म है और परायों में अपनापन महा अधर्म है।
- आत्मा ही है शरण, पृष्ठ ४६