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समयसार अनुशीलन से भेदज्ञान हुआ, अपनी स्वरूपसम्पदा अनुभव में आई; तब फिर पुनः मोह कैसे उत्पन्न हो सकता है?"
इस गाथा के भाव को आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - __ "जिसप्रकार कोई पुरुष अपनी मुट्ठी में रखे सोने को भूल गया हो, पर किसी के ध्यान दिलाने पर या स्वयं स्मरण आ जाने पर उसे देखे और आनन्दित हो; उसीप्रकार (उसी न्याय से) अनादि मोहरूप अज्ञान से उन्मत्तता के कारण जो आत्मा अत्यन्त अप्रतिबुद्ध था, अपने परमेश्वर आत्मा को भूल गया था; विरक्त गुरु के द्वारा निरन्तर समझाये जाने पर, किसीप्रकार समझकर, सावधान होकर; अपने आत्मा को जानकर, उसका श्रद्धान कर और उसका आचरण करके, उसमें तन्मय होकर, जो सम्यक्प्रकार एक आत्माराम हुआ, दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमित हुआ; अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त हुआ; वह मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि – मैं चैतन्यमात्र ज्योतिरूप आत्मा हूँ और मेरे अनुभव से ही प्रत्यक्ष ज्ञात होता हूँ। ___ मैं एक हूँ; क्योंकि चिन्मात्र आकार के कारण समस्त क्रमरूप और
अक्रमरूप से प्रवर्तमान व्यवहारिक भावों से भेदरूप नहीं होता। ___ मैं शुद्ध हूँ; क्योंकि नर, नारकादि जीव के विशेष और अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध तथा मोक्ष स्वरूप व्यवहारिक नवतत्वों से टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावरूप भाव के द्वारा अत्यन्त भिन्न हूँ। ___ मैं दर्शन-ज्ञानमय हूँ; क्योंकि चिन्मात्र होने से सामान्य-विशेष उपयोगात्मकता का उल्लंघन नहीं करता।
मैं परमार्थ से सदा ही अरूपी हूँ; क्योंकि स्पर्श, रस, गंध और वर्ण जिसके निमित्त हैं - ऐसे संवेदनरूप परिणमित होने पर भी स्पर्शादिरूप स्वयं परिणमित नहीं होता।