________________
333
कलश ३१
वे तो जगत से पूर्णत: असंबंधित ही रहते हैं; उन्हें जगत से असंयुक्त ही माना जाता है । केवली के समान सभी ज्ञानी जगत से असंयुक्त ही हैं । यद्यपि ज्ञेय-ज्ञायक संबंध को संबंध कहा जाता है, पर यह कोई संबंध नहीं है; क्योंकि इसमें कोई बन्धन नहीं है। ज्ञेय भिन्न हैं और ज्ञान भिन्न हैं - यह जानना ही ज्ञेयभाव से भेदविज्ञान है । बस यही भाव इस गाथा का मूल प्रतिपाद्य है। ___ अब ३६वीं एवं ३७वीं गाथा की विषयवस्तु को समेटते हुए आचार्य अमृतचन्द्रदेव कलशरूप काव्य लिखते हैं, जो इसप्रकार है -
( मालिनी ) इति सति सह सर्वैरन्यभावैर्विवेके
स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकम्। प्रकटितपरमार्थैर्दर्शनज्ञानवृत्तैः ।। कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्तः॥३१॥
( हरिगीत ) बस इसतरह सब अन्यभावों से हुई जब भिन्नता। तब स्वयं को उपयोग ने स्वयमेव ही धारण किया। प्रकटित हुआ परमार्थ अर दृग ज्ञान वृत परिणत हुआ।
तब आतमा के बाग में आतम रमण करने लगा।।३१ ।। इसप्रकार भावकभाव और ज्ञेयभावों से भेदज्ञान होने पर जब सर्व अन्य भावों से भिन्नता भासित हुई, विवेक जागृत हुआ; तब यह उपयोग स्वयं ही एक अपने आत्मा को ही धारण करता हुआ, दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप से परिणत होता हुआ, परमार्थ को प्रकट करता हुआ अपने आत्माराम में ही प्रवृत्ति करता है, आत्मारूपी बाग में ही रमण करता है, अन्यत्र नहीं भटकता।
इस कलश का भाव स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं -