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समयसार अनुशीलन
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( अडिल्ल ) कहैं विचच्छन पुरुष सदा मैं एक हौं।
अपने रस सौं भर्यो आपनी टेक हौं। मोहकर्म मम नांहि नांहि भ्रमकूप है।
सुद्धचेतना सिन्धु हमारौ रूप है॥ ३३॥ ज्ञानी जीव कहते हैं कि मैं सदा एक ही हूँ और अपने अतीन्द्रिय आनन्द के रस से सरावोर हूँ, मुझमें कोई कमी नहीं है। मोहकर्म और उसके उदय में होने वाले भाव किसी भी रूप में मेरे नहीं है, उन्हें अपना मानना भ्रम के कुयें में पड़ना है और मेरा स्वरूप शुद्ध ज्ञान-दर्शन चेतना का सागर है।
कलश में 'नास्ति' शब्द दो बार आया है। जब कोई शब्द दो बार आता है तो उसका अर्थ मात्र दो बार ही नहीं होता, अनेक बार होता है। जैसे कोई कहे कि 'तू बार-बार यही बात करता है ' तो इसका अर्थ दो बार नहीं होता, अपितु अनेक बार होता है। आचार्य कहते हैं कि भाई तुम बारंबार यह विचार करो कि मोह मेरा कुछ भी नहीं है। दो बार 'नास्ति' शब्द का प्रयोग करके आचार्यदेव इस बात पर वजन डालना चाहते हैं । वे यह कहना चाहते हैं कि चाहे एकबार कहो या हजारबार कहो; बात तो यही है कि मोहादि विकारीभाव और परपदार्थ मेरे कुछ भी नहीं हैं। __ प्रश्न -गाथा और कलश में तो अकेले मोह के बारे में ही कहा है और आपने उसके साथ परपदार्थ भी जोड़ दिये?
उत्तर –अरे भाई, आचार्यदेव ने 'मोह' पद बदलकर उसके स्थान पर राग आदि १६ पद जोड़कर १६ गाथायें बनाने का आदेश दिया है न । उनमें कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय और पाँच इन्द्रियाँ भी आ गई हैं न। ये सब परपदार्थ ही तो हैं । अत: ये सभी मेरे कुछ भी नहीं हैं, मैं तो एक शुद्धचिद्घन की महानिधि हूँ, ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्त्व हूँ,