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पुद्गल और अन्य जीव
इसप्रकार आत्मा में प्रकाशमान ये तदाकार होकर डूब रहे हों धर्म, अधर्म, आकाश, काल, ये समस्त परद्रव्य मेरे कुछ भी नहीं हैं; क्योंकि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावत्व से परमार्थत: अन्तरंग तत्त्व तो मैं हूँ और वे परद्रव्य मेरे स्वभाव से भिन्न स्वभाववाले होने से परमार्थत: बाह्यतत्त्वरूपता को छोड़ने में पूर्णतः असमर्थ हैं।
गाथा ३७
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दूसरे चैतन्य में स्वयं ही नित्य उपयुक्त और परमार्थ से एक अनाकुल आत्मा का अनुभव करता हुआ भगवान आत्मा ही जानता है कि मैं प्रगट निश्चय से एक ही हूँ; इसलिए ज्ञेय - ज्ञायक भावमात्र से उत्पन्न परद्रव्य के साथ परस्पर मिले होने पर भी, प्रगट स्वाद में आते हुए स्वभाव के कारण धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवों के प्रति मैं निर्मम हूँ; क्योंकि सदा ही अपने एकत्व में प्राप्त होने से समय ज्यों का त्यों ही स्थित रहता है, अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता । - इसप्रकार ज्ञेयभावों से भेदज्ञान हुआ।"
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आत्मख्याति के भाव को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं 'चैतन्य की परिणति ऐसी प्रकाशमय है कि उसका फैलाव विस्तार किसी से रोका नहीं जा सकता । समस्त पदार्थों को ग्रसने का अर्थात् जानने का इसका स्वभाव है; चाहे वह शरीर हो, भगवान हो, मूर्ति हो, गुरु हो, शास्त्र हो, सभी ज्ञेयों को अपने स्वभाव से ही जानने का उसका स्वभाव है । ग्रसने का स्वभाव है अर्थात् ज्ञान में जान लेने का स्वभाव है। ज्ञान का स्वभाव समस्त पदार्थों को जानने का है, तथापि ज्ञान का परिणमन ज्ञेय के कारण नहीं होता ।
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जैसे दर्पण में परवस्तु का जो प्रतिबिम्ब ज्ञात होता है, वह परवस्तु नहीं; दर्पण में वह परवस्तु आई भी नहीं है । तथा दर्पण में जो प्रतिबिम्ब पड़ा है, वह भी पर के कारण नहीं, किन्तु दर्पण की स्वच्छता के कारण है। परवस्तु मानो दर्पण में आ गई हो – ऐसा मालूम पड़ता है; तथापि