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समयसार अनुशीलन
जिसप्रकार जितमोह और क्षीणमोह में मोह पद के स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान आदि पद रखकर १६ - १६ गाथायें बनाकर व्याख्यान करने की बात कही थी; उसीप्रकार यहाँ भी १६ गाथायें बनाकर व्याख्यान करने की बात आचार्य अमृतचन्द्र व जयसेन दोनों कहते हैं । वे गाथायें इसप्रकार बनाई जा सकती हैं ।
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( हरिगीत )
रागादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है राग निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥ द्वेषादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है द्वेष निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥ क्रोधादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है क्रोध निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥ इसीप्रकार अन्य गाथायें भी बना लेना चाहिए ।
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इनकी व्याख्या भी इसप्रकार की जा सकती है कि कर्म भावक हैं और राग उसका भाव्य है । वह राग मैं नहीं हूँ; क्योंकि मैं तो एक ज्ञायकभाव हूँ । यद्यपि वह राग मेरे ज्ञान में ज्ञात होने योग्य है; तथापि वह राग मेरे ज्ञान में तद्रूप हो जावे ऐसा मेरा स्वभाव नहीं है इसीप्रकार द्वेष, क्रोध, मानादि पर भी लगा लेना चाहिए।
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प्रश्न – यहाँ सोलह गाथायें ही बनानी हैं या और भी बनाई जा सकती हैं ?
उत्तर - हाँ, हाँ; और भी बनाई जा सकती हैं। आचार्य अमृतचन्द्र का ऐसा ही आदेश है । आचार्य जयसेन तो यहाँ तक कहते हैं कि विभावभाव असंख्यात लोकप्रमाण है, अतः असंख्यात गाथायें बनाई जा सकती हैं; पर असंख्यात बनाना तो सम्भव नहीं है । अतः जितनी आपकी सामर्थ्य है, उतनी तो बनाई ही जानी चाहिये ।
प्रश्न – दो-चार गाथायें बनाकर बताइये न ?