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गाथा ३६
___ "यहाँ कहते हैं कि पुद्गलद्रव्य भावकरूप होकर मोह की रचना करता है । यहाँ जो मोह की बात है, वह चारित्रमोह की अपेक्षा से है: सम्यग्दर्शन के बाद की बात है, मिथ्यात्व की बात नहीं है । पर की ओर झुकनेवाला भाव (राग-द्वेष) ही मोह है । वह मोह मेरा कोई भी संबंधी नहीं है। पर की ओर सजग रहने का जो भाव है, वह मेरा नहीं है। परन्तु अपने स्वभाव की ओर सजग रहने का भाव मेरा है । भावकरूप मोहकर्म और उसकी ओर झुकनेवाले भावों के साथ मेरा कोई भी संबंध नहीं है; क्योंकि एक चैतन्यधातु ज्ञायकस्वभाव का परमार्थ से परभावरूप होना या भाव्यरूप होना अशक्य है।
जिसप्रकार कर्म भावकरूप होता है, तब मोह होता है; उसीप्रकार मैं ज्ञानदर्शन-उपयोगस्वभावी तत्त्व हूँ, जिससे मेरी पर्याय में ज्ञानदर्शन शक्ति की व्यक्तता होती है । यह व्यक्ततारूप उपयोग मेरी चीज है; किन्तु मोह मेरी चीज नहीं है। कर्म के निमित्त से हुआ राग-द्वेष
का परिणाम जो उपयोग में झलकता है, वह मैं नहीं हूँ; क्योंकि एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक- स्वभावभावरूप शुद्धचैतन्य उपयोगस्वभावी वस्तु का विकाररूप (भाव्यपने) होना अशक्य है। ___ मैं तो चैतन्यशक्ति स्वभाववाला तत्त्व हूँ, इसलिए मेरा जो विकास होता है, वह भी जानने-देखने के परिणामरूप से ही होता है । भावकर्म के निमित्त से जो विकार होता है, वह भी मेरा विकास नहीं है। पर्याय में भी विकार न हो - ऐसा मेरा स्वरूप है। शक्तिरूप से तो आत्मा ज्ञायक है ही, किन्तु उसकी जो व्यक्तता/प्रगटता होती है, वह भी ज्ञानदर्शन उपयोगस्वरूप ही होती है।"
आचार्य जयसेन कहते हैं कि एक विशेष बात यह है कि पूर्व गाथा में जिस स्व-संवेदनज्ञान को प्रत्याख्यान कहा था, उसे ही यहाँ निर्ममत्व या निर्मोहत्व कहते हैं।
१. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १०७ २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १०८