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गाथा ३६
भेदविज्ञान कराते हैं और ३७वीं गाथा में ज्ञेयभावों से भेदविज्ञान करायेंगे।
इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए पंडित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं -
"यह मोहकर्म जड़ पुद्गल द्रव्य है; उसका उदय कलुषभावरूप है। वह भाव भी मोहकर्म का भाव होने से पुद्गल का ही विकार है। यह भावक का भाव जब चैतन्य के उपयोग के अनुभव में आता है; तब उपयोग भी विकारी होकर रागादिरूप मलिन दिखाई देता है । जब उसका भेदज्ञान हो कि 'चैतन्य की शक्ति की व्यक्ति तो ज्ञानदर्शनोपयोग मात्र है और यह कलुषता राग-द्वेष-मोहरूप है; वह द्रव्यकर्मरूप जड़ पुद्गल द्रव्य की है' - तब भावकभाव जो द्रव्यकर्मरूप मोह का भाव है, उससे अवश्य भेदभाव होता है और आत्मा अवश्य अपने चैतन्य के अनुभवरूप स्थित होता है।"
उक्त भावार्थ में यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि जानने-देखनेरूप परिणमन तो चैतन्यशक्ति की व्यक्तता है और राग-द्वेषरूप कलुषता भावकभाव होने से द्रव्यकर्मरूप जड़ पुद्गलद्रव्य की है। जब यह कलुषता ज्ञान में ज्ञात होती है तो ज्ञान भी मलिन दिखाई देता है, पर ज्ञान मलिन हो नहीं जाता। यदि इस ज्ञान की और राग की भिन्नता जान ली जावे तो आत्मा अपने अनुभव में अवश्य स्थित होता है।
इस गाथा के अभिप्राय को आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"निश्चय से फलदान की सामर्थ्य से प्रगट होकर भावकरूप होनेवाले पुद्गलद्रव्य से रचित मोह मेरा कुछ भी नहीं है; क्योंकि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावभाव का परमार्थ से पर के भाव द्वारा भाया जाना (भाव्यरूप करना) अशक्य है।