________________
समयसार अनुशीलन
310
पर सबकुछ साफ-साफ दिखाई देने लगता है ; उसीप्रकार जवतक आत्मा अप्रतिबुद्ध था, तबतक पर में अपनत्व भासित होता था, देह और आत्मा में एकत्व भासित होता था; पर अब वह प्रतिबुद्ध हो गया है; अत: सवकुछ स्पष्ट हो गया है। इसलिए अब वह पर से छुटकारा पाना चाहता है। यही कारण है कि वह प्रत्याख्यान के, त्याग के सही स्वरूप के बारे में जानना चाहता है। प्रत्याख्यान की, त्याग की विधि जानना चाहता है। __ ऐसे शिष्य की जिज्ञासा शान्त करने के लिए आचार्यदेव ३४वीं व ३५वीं गाथा में प्रत्याख्यान का स्वरूप और विधि सोदाहरण स्पष्ट करते हैं, जो इसप्रकार है :
सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परे त्ति णादूणं। तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं ॥३४॥ जह णाम कोवि पुरिसो परदव्वमिणं ति जाणिदुं चयदि। तह सव्वे परभावे णाऊण विमुञ्चदे णाणी ॥३५॥
( हरिगीत ) परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करें। तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है॥३४॥ जिसतरह कोई पुरुष पर जानकर पर परित्यजे।
बस उसतरह पर जानकर परभाव ज्ञानी परित्यजे ॥३५॥ जिसकारण यह आत्मा अपने आत्मा से भिन्न समस्त परपदार्थों का 'वे पर हैं' - ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है, त्याग करता है ; उसी कारण प्रत्याख्यान ज्ञान ही है। - ऐसा नियम से जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि अपने ज्ञान में त्यागरूप अवस्था होना ही प्रत्याख्यान है, त्याग है; अन्य कुछ नहीं।
जिसप्रकार लोक में कोई पुरुष परवस्तु को 'यह परवस्तु है' - ऐसा जानकर परवस्तु का त्याग करता है; उसीप्रकार ज्ञानी पुरुष समस्त परद्रव्यों के भावों को 'ये परभाव हैं' -- ऐसा जानकर छोड़ देते हैं।