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समयसार अनुशीलन
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अब आचार्य अमृतचन्द्रदेव कलशकाव्य के रूप में कहते हैं कि दृष्टान्त द्वारा जो यह बात समझाई गई है, उसका प्रभाव क्षीण होने के पहले ही आत्मानुभव प्रगट हो जाता है, हो जाना चाहिए। उग्र पुरुषार्थ से आत्मानुभव करने की प्रेरणा देनेवाला वह कलशकाव्य इसप्रकार
( मालिनी ) अवतरित न यावद् वृत्तिमत्यन्तवेगा
दनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः। झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव ॥२९ ।।
( हरिगीत ) परभाव के परित्याग की दृष्टि पुरानी न पड़े। अर जबतलक हे आत्मन् वृत्ति न हो अतिबलवती॥ व्यतिरिक्त जो परभाव से वह आतमा अतिशीघ्र ही।
अनुभूति में उतरा अरे चैतन्यमय वह स्वयं ही॥२९॥ जबतक वृत्ति अत्यन्त वेग से प्रवृत्ति को प्राप्त न हो, अवतरित न हो और परभाव के त्याग के दृष्टान्त की दृष्टि पुरानी न पड़े, फीकी न हो जाय; उसके पहले ही सम्पूर्ण अन्यभावों से रहित आत्मा की यह अनुभूति तत्काल स्वयं ही प्रगट हो गई।
परभाव का त्याग कैसे होता है, आत्मानुभूति प्रगट कैसे होती है - इस बात को आचार्यदेव ने दृष्टान्त देकर बहुत ही अच्छी तरह समझाया है। श्रोताओं और पाठकों की समझ में भी बात आ गई है, उनके हृदय में आत्मानुभूति की भावना भी जग गई है; पर यदि ऐसे में उग्र पुरुषार्थ नहीं हुआ तो थोड़े ही समय में वृत्ति में मलिनता हो सकती है, समझ भी फीकी पड़ सकती है। अत: यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण क्षण है, महान अवसर है; इसे चूकना योग्य नहीं है। इसलिए यहाँ