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गाथा ३४-३५
आत्मा नहीं है अर्थात् पर भाव के त्याग के कर्तापने का नाम भी आत्मा के नहीं है।
परद्रव्य को पररूप से जाना तो परभाव का ग्रहण नहीं हुआ, वही उसका त्याग है । राग की ओर उपयोग के जुड़ान से जो अस्थिरता थी; उस ज्ञानोपयोग के ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा में स्थिर होने पर अस्थिरता उत्पन्न ही नहीं हुई, बस इसे ही प्रत्याख्यान कहते हैं। इसलिए स्थिर हुआ ज्ञान ही प्रत्याख्यान है। ज्ञान के सिवाय दूसरा कोई भाव प्रत्याख्यान नहीं है। ज्ञायक चैतन्यसूर्य में ज्ञान का स्थिर हो जाना ही प्रत्याख्यान है।" ___ आत्मा को जानना ज्ञान है और आत्मा को ही लगातार जानते रहना प्रत्याख्यान है, त्याग है, ध्यान है। प्रत्याख्यान, त्याग और ध्यान - ये सभी चारित्रगुण के ही निर्मल परिणमन हैं; जो ज्ञान की स्थिरतारूप ही हैं । अत: यह ठीक ही कहा है कि स्थिर हुआ ज्ञान ही प्रत्याख्यान है।
जयचन्दजी छाबड़ा ३४वीं गाथा के भावार्थ में लिखते हैं -
"आत्मा को परभाव के त्याग का कर्तृत्व है, वह नाममात्र ही है। वह स्वयं तो ज्ञानस्वभावी है। परद्रव्य को पर जाना और फिर परभाव का ग्रहण नहीं करना ही त्याग है। इसप्रकार स्थिर हुआ ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ज्ञान के अतिरिक्त दूसरा कोई भाव नहीं है।" ।
आचार्य जयसेन तो अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं कि -
"इसलिए निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान ही नियम से प्रत्याख्यान है - ऐसा मानना चाहिए, जानना चाहिए, अनुभव करना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि परमसमाधिकाल में स्वसंवेदनज्ञान के बल से जो शुद्धात्मा का अनुभव होता है, वह स्वानुभव ही निश्चय प्रत्याख्यान है।" १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ ८३ २. वही,
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