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समयसार अनुशीलन
कि यह वस्त्र तो मेरा है। उसके यह कहने पर चिन्हों से पहिचानते ही उसमें त्याग भाव आ जाता है । उसीप्रकार यह आत्मा अनादिकाल से ही पुद्गल के संयोग में है और उसे अपना मानकर विभावभावों में बह रहा है; किन्तु जब भेदज्ञान हुआ तो अपने और पराये की पहिचान हो गई और उसी समय परभाव से न्यारा हो गया और स्वभाव में आ गया।
उक्त सम्पूर्ण कथन में एक बात पर विशेष बल दिया जा रहा है कि जिसप्रकार यह पता चलते ही कि 'यह वस्त्र मेरा नहीं है', तत्काल ही त्यागभाव आ जाता है; जानने, पहिचानने और त्यागभाव आने में समयभेद नहीं है, तीनों एक काल में ही होते हैं । इसीप्रकार परपदार्थों और उनके भावों को जब पररूप जानते हैं तो उसी समय उनसे अपनापन टूट जाता है और उनके त्याग का भाव आ जाता है । यह बात अलग है कि तत्काल उस वस्त्र को वह व्यक्ति छोड़ न पावे; क्योंकि जबतक दूसरे वस्त्र की व्यवस्था न हो जावे, तबतक लाज की सुरक्षा के लिए कदाचित् उसे ओढ़े रहना पड़े, तो भी उसमें से अपनापन टूट जाता है, त्यागभाव आ जाता है । उसीप्रकार रागादि भावों को पर जान लेने पर भी कुछ कालतक रागादिभावों का संयोग देखा जा सकता है, पर उनसे अपनापन पूरी तरह टूट जाता है । जब अपनापन छूट गया तो एक दिन वे भी अवश्य छूट जावेंगे ।
हाँ, एक बात यह भी तो है कि उनसे अपनापन टूटते ही अनन्तानुबंधी संबंधी राग भी नियम से छूट जाता है; क्योंकि मिथ्यात्व के साथ अनन्तानुबंधी कषाय भी जाती ही है । अत: यह सुनिश्चित ही है कि श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र की शुद्धि एक साथ ही आरंभ होती है। इनकी पूर्णता में कालभेद हो सकता है; पर आरंभ में, उत्पत्ति में कलमंद नहीं होता ।
सम्यग्दर्शन चतुर्थगुणस्थान में ही पूर्ण हो जाता है, क्योंकि किन्हीं - किन्हीं को क्षायिक सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थान में ही हो जाता है। ज्ञान