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समयसार अनुशीलन
उत्तर – इसी कलश की टीका में कलशटीकाकार उक्त शंका का
समाधान इसप्रकार करते हैं
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भावार्थ इसप्रकार है कि शुद्धचैतन्य का अनुभव तो सहजसाध्य है, यत्नसाध्य तो नहीं; पर इतना कहकर यहाँ अत्यन्त उपादेयपने को दृढ़ किया है। "
वस्तुत: बात यह है कि सहजसाध्य और पुरुषार्थ में कोई विरोध नहीं है; क्योंकि आत्मानुभव का पुरुषार्थ भी सहज ही होता है अथवा सहज होना ही आत्मानुभूति का सम्यक्पुरुषार्थ है । जब हमारी दृष्टि में आत्मानुभव अत्यन्त उपादेयपने स्थापित हो जावेगा तो अन्तर में रुचि की तीव्रता से अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ सहज ही स्फुरित होगा । 'रुचि अनुयायी वीर्य' इस उक्ति के अनुसार वीर्य रुचि के अनुसार ही स्फुरायमान होता है ।
उक्त कलश के भाव को कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में इसप्रकार प्रस्तुत किया है
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( सवैया इकत्तीसा )
" बानारसी कहै भैया भव्य सुनो मेरी सीख,
कैहूँ भाँति कैसे हूँ कै ऐसौ काजु कीजिए । एकहू मुहूरत मिथ्यात कौ विधुंस होइ,
ग्यान कौं जगाइ अंस हंस खोजि लीजिए ॥ वाही कौ विचार वाकौ ध्यान यहै कौतूहल,
यौं ही भरि जनम परम रस पीजिए । तजि भव-वास कौ विलास सविकाररूप, अंतकरि मोह कौ अनन्तकाल जीजिए ॥ पण्डित बनारसीदासजी कहते हैं कि हे भाई! हे भव्यजीवो!! तुम
मेरी सीख ध्यान से सुनो। किसी भी तरह कुछ भी करके ऐसा कार्य अवश्य करो कि एक मुहूर्त को मिथ्यात्व का नाश होकर ज्ञान का अंश जागृत हो जावे और आत्मरूपी हंस की प्राप्ति हो जावे