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समयसार अनुशीलन
यद्यपि चारित्रमोह का उदय तो कर्म में आया; किन्तु सम्यग्दृष्टि ज्ञानी का आत्मा भी उसका अनुसरण करके पर्याय में राग-द्वेषरूप होने की योग्यतावाला है । इस कारण कर्म के उदय के अनुसार जो पर्याय में रागद्वेष होते हैं; वह संकरदोष है । जब ज्ञायकस्वभाव के उग्र आश्रय से ज्ञानी का कर्मोदय की ओर का झुकाव छूटकर पर से पृथकता हो जाती है और उससे राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होते, बल्कि अरागी-अद्वेषीवीतरागी परिणाम प्रगट होते हैं, उसे राग-द्वेष का जीतना कहते हैं।
राग व द्वेष में चारों कषायें आ जाती हैं। क्रोध तथा मान द्वेषरूप हैं तथा माया और लोभ रागरूप हैं । यद्यपि चारित्रमोह का उदय तो जड़ में आता है; तथापि समकिती व मुनि के भी चारित्रमोह के चारों ही प्रकार के कर्मोदय का अनुसरण करके कषायरूप परिणमन करने की योग्यता है । यहाँ कषाय प्रगट हुई, पश्चात् जीतकर छोड़ देता है - ऐसा नहीं समझना; परन्तु कषाय उत्पन्न ही नहीं होने देता है - यह समझना चाहिए। कषाय के उदय की ओर का लक्ष्य छोड़कर स्वभाव के लक्ष्य से स्वभाव का अनुसरण करते हुए भावक-भाव्य का भेदज्ञान होता है, इसकारण भाव्य कषाय उत्पन्न ही नहीं होती है। उसे ही कषाय का जीतना कहा है।"
उक्त कथन में स्वामीजी ने मोह के स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ - इन छह को रखकर इन्हें जीतने की व्याख्या प्रस्तुत की है। इसीप्रकार उन्होंने आगे कर्म, नोकर्म आदि को भी स्पष्ट किया है। कर्म में आठों कर्मों के आधार पर स्पष्टीकरण किया है । पाँच इन्द्रियों की बात को भी समझाया है। । उक्त सम्पूर्ण स्पष्टीकरण से यह अच्छीतरह समझा जा सकता है कि इन गाथाओं के आधार पर १६-१६ गाथायें किसप्रकार बनाना और उनकी व्याख्या कैसे करना? १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग – २, पृष्ठ ६०.६१