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गाथा २८. २९
अरहंत भगवान की दिव्यध्वनि से भी भव्यजीवों को धर्मलाभ होता हैं. देशना प्राप्त होती है और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में देशनालब्धि आवश्यक मानी गई है। ___ अत: देवदर्शन और दिव्यध्वनिश्रवण के लाभ को ध्यान में रखकर ही देहादि को आधार बनाकर देवाधिदेव अरहंत देव की स्तुति की जाती है; पर वह है तो पराश्रित व्यवहार ही, उसे निश्चय के समान सत्यार्थ स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
व्यवहार की वास्तविकता । यहाँ व्यवहार से नर-नारकादि पर्याय ही को जीव कहा, सो पर्याय ही को जीव नहीं मान लेना। पर्याय तो जीव- पद्गल के संयोगरूप है। वहाँ निश्चय से जीवद्रव्य भिन्न है, उसही का जीव मानना। जीव के संयोग से शरीरादिक को भी उपचार से जीव कहा, सा कथनमात्र ही है, परमार्थ से शरीरादिक जीव होते नहीं - ऐसा ही श्रद्धान करना।
तथा अभेद आत्मा में ज्ञान-दर्शनादि भेद किये, सो उन्हें भेदरूप ही नहीं मान लेना, क्योंकि भेद तो समझाने के अर्थ किये हैं। निश्चय से आत्मा अभेद ही है; उस ही को जीव वस्तु मानना । संज्ञा-संख्यादि से भेद कहे सो कथनमात्र ही हैं ; परमार्थ से भिन्न-भिन्न हैं नहीं, - ऐसा ही श्रद्धान करना। ___ तथा परद्रव्य का निमित्त मिटाने की अपेक्षा से व्रत-शीलसंयमादिक को मोक्षमार्ग कहा, सो इन्हीं को मोक्षमार्ग नहीं मान लेना; क्योंकि परद्रव्य का ग्रहण-त्याग आत्मा के हो तो आत्मा परद्रव्य का कर्ता-हर्ता हो जाये। परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के आधीन है नहीं; इसलिये आत्मा जो अपने भाव रागादिक हैं उन्हें छोड़कर वीतरागी होता है ; इसलिये निश्चय से वीतरागभाव ही मोक्षमार्ग है । वीतरागभावों के और व्रतादिक के कदाचित् कार्य-कारणपना है. इसलिये व्रतादि को मोक्षमार्ग कहे सो कथनमात्र ही है ; परमार्थ से बाह्यक्रिया मोक्षमार्ग नहीं है – ऐसा ही श्रद्धान करना। - मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २५२