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समयसार अनुशीलन
286 करने की आवश्यकता है, गरुगम की आवश्यकता है, सत्समागम की आवश्यकता है। ___ हाँ, तो इसप्रकार शरीर परिणाम को प्राप्त स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण और उपचार सं मन भी- ये द्रव्येन्द्रियाँ, इनके माध्यम से जाननेवाली ज्ञान की क्षयोपशमदशा रूप भावन्द्रियाँ और इनके माध्यम से ज्ञात होनेवाले बाह्य ज्ञेय पदार्थ -- इन सभी का एक नाम 'इन्द्रिय' है। __ अज्ञानीजीव अनादि से इन इन्द्रियों को आत्मा जानता रहा है, इनमें ही अपनापन स्थापित किये रहा है, इन्हीं में जमा-रमा रहा है; यही इसकी इन्द्रियाधीनता है। ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा इन इन्द्रियों से अत्यन्त भिन्न है. एकत्व में टंकोत्कीर्ण है. अविनश्वर है. प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा अन्तर में प्रकाशमान है, स्वत:सिद्ध एवं परमार्थस्वरूप है – यह जानकर, अनुभवपूर्वक जानकर; उस भगवान आत्मा में ही अपनापन हो जाना, उसमें ही जम जाना, रम जाना इन्द्रियों को जीतना है। ____ इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ तो ज्ञेय हैं ही, द्रव्येन्द्रियाँ भी ज्ञेय ही हैं। यहाँ तो यह भी कहा जा रहा है कि क्षयोपशमज्ञानरूप भावेन्द्रियाँ भी ज्ञेय ही हैं । ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा इन सभी से भिन्न है। - यह न जानकर इन्द्रियों को ज्ञायक जानना और इन्द्रियों के विषयों को ज्ञेय जानना और ज्ञायक को जानना ही नहीं - ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष का एक प्रकार तो यह है और दूसरे ज्ञायक भगवान आत्मा और इन तीनों प्रकार की इन्द्रियों को एकमेक मानना, इनमें कोई भेद नहीं कर पाना भी ज्ञेय-ज्ञायकसंकर दोष है। ___ तीनों प्रकार की इन्द्रियों को ज्ञेय जानकर ज्ञाता भगवान आत्मा को उनसे भिन्न जानना, मानना, अनुभव करना ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष का परिहार है तथा इसी को तीर्थंकर भगवान की प्रथम प्रकार की निश्चयस्तुति कहते हैं।