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समयसार अनुशीलन
आचार्य जयसेन के उक्त कथन से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि उदयागत मोहकर्म भावक है और उसके अनुसार राग-द्वेष परिणत आत्मा भाव्य है, भावकरूप द्रव्यकर्म और भाव्यरूप राग-द्वेषमय अशुद्ध आत्मा इन दोनों का शुद्ध आत्मा के साथ संबंध या एकत्व होना ही भाव्य-भावक संकरदोष है और स्वसंवेदन ज्ञान के बल से, स्वानुभूति के बल से, शुद्धोपयोग के बल से भावकरूप द्रव्यमोह को और भाव्यरूप भावमोह को उपशमित कर देना द्वितीय निश्चयस्तुति है और क्षयकर देना तृतीय निश्चयस्तुति है ।
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ज्ञेय - ज्ञायकसंकर दोष के परिहार में श्रद्धा संबंधी दोष तो निकल गया है, मिथ्यात्व तो चला गया है; भूमिकानुसार अनन्तानुबंधी आदि कषायें भी चली गई हैं; पर अभी भूमिकानुसार शेष राग-द्वेष होते हैं । ज्ञानस्वभाव के आश्रय से उन्हें उपशमित करना भाव्य-भावकसंकर दोष का परिहार है, जितमोहपना है, मोह को जीतना है; दूसरे प्रकार की निश्चयस्तुति है ।
भाव्य-भावक दोष के परिहार में राग-द्वेष का उपशम तो हुआ है; पर उनका पूर्णत: अभाव नहीं हुआ है, आत्यन्तिक क्षय नहीं हुआ है, जड़मूल से नाश नहीं हुआ है, उनकी सत्ता का नाश नहीं हुआ है। ज्ञानस्वभाव के अत्यन्त उग्र आश्रय से उन्हें जड़मूल से उखाड़ देना, नष्ट कर देना, क्षय कर देना भाव्य-भावक भाव का अभाव है, क्षीणमोहपना है, मोह का नाश करना है; तीसरे प्रकार की निश्चय स्तुति है ।
पहले प्रकार की निश्चयस्तुति को जघन्य निश्चयस्तुति, दूसरे प्रकार की निश्चयस्तुति को मध्यम निश्चयस्तुति और तीसरे प्रकार की निश्चयस्तुति को उत्कृष्ट निश्चयस्तुति भी कहते हैं ।
जिन तीन प्रकार के होते हैं (१) जितेन्द्रिय जिन, (२) जितमोह जिन और (३) क्षीणमोह जिन ।
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