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समयसार अनुशीलन क्षीणमोहजिनरूप तृतीयस्तुति कहेंगे तो फिर सातवें के सातिशयअप्रमत्तभाग से दशवें गुणस्थान तक कोई भी स्तुति नहीं मानी जायेगी। अतः मोटे तौर पर यही ठीक है कि चौथे से सातवें के स्वस्थानअप्रमत्तभाग तक प्रथमस्तुति, उपशम श्रेणीवालों को द्वितीयस्तुति और क्षपक श्रेणीवालों को तृतीयस्तुति कहा जाय।
प्रश्न –मोह की किन-किन प्रकृतियों का किन-किन गुणस्थानों में उपशम व क्षय होता है?
उत्तर –इस सम्बंध में विस्तृत कथन करणानुयोग के गोम्मटसारादि ग्रंथों से जानना चाहिये; वहाँ इन सबका विस्तृत विवेचन किया गया है। यहाँ इस अध्यात्म के प्रकरण में उनकी विस्तृत चर्चा संभव नहीं है, उचित भी नहीं है।
उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी का स्पष्टीकरण इसप्रकार है -
"यह स्तुति साधकभाव है और वह बारहवें गुणस्थान तक ही होती है। तेरहवें गुणस्थान में स्तुति नहीं होती; क्योंकि तेरहवाँ गुणस्थान, केवलज्ञान तो स्तुति का फल है।
राग से भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्मा का अनुभव होने पर सम्यग्दर्शन होता है - वह पहली स्तुति है। ऐसा होते हुए भी सम्यग्दृष्टि के कर्म के उदय की ओर के झुकाव से स्वयं के कारण भावकर्म के निमित्त से विकारी भाव्य होता है । यह भाव्य-भावकसंकर दोष है तथा कर्म के उदय का लक्ष्य छोड़कर अखण्ड, एक चैतन्यघन प्रभु के सन्मुख होकर उसमें अपने उपयोग का जुड़ान करने से उपशमभाव द्वारा ज्ञानी उस मोह को जीतता है । – यह दूसरे प्रकार की निश्चयस्तुति है।
प्रथम प्रकार की स्तुति में सम्यग्दर्शन सहित आनन्द का अनुभव है और दूसरे प्रकार की निश्चय स्तुति में भावक मोहकर्म के उदय के १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग - २, पृष्ठ ५८