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गाथा ३२-३३.
सम्यग्दृष्टि जितेन्द्रिय जिन हैं, उपशणश्रेणीवाले जितमोह जिन हैं और क्षपक श्रेणीवाले क्षीणमोह जिन हैं । वीतरागी सर्वज्ञ भगवान जिनवर हैं, जिनेश्वर हैं ।
ज्ञेय - ज्ञायकसंकर दोष के परिहारपूर्वक होनेवाली जितेन्द्रिय जिनरूप प्रथम निश्चयस्तुति चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान के स्वस्थान- अप्रमत्तभाग तक होती है । भाव्य- भावकसंकर दोष के परिहारपूर्वक होनेवाली जितमोह जिनरूप दूसरी निश्चयस्तुति उपशमश्रेणीवालों के होती है और भाव्य-भावक भाव के अभावपूर्वक होनेवाली क्षीणमोहजिनरूप तृतीय निश्चयस्तुति क्षपक श्रेणीवालों के होती है। इसप्रकार चौथे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक निश्चयस्तुति होती है । तेरहवाँ गुणस्थान निश्चयस्तुति का फल है ।
प्रश्न –जितमोह तो ग्यारहवें गुणस्थान का नाम है और क्षीणमोह बारहवें गुणस्थान का नाम है । अतः जितमोहजिनरूप दूसरी स्तुति ग्यारहवें गुणस्थान में होनी चाहिये और क्षीणमोहजिनरूप तीसरी स्तुति बारहवें गुणस्थान में होनी चाहिये ।
उत्तर - तुम ठीक कहते हो, बात तो ऐसी ही है; क्योंकि मोह का पूर्ण उपशम ग्यारहवें गुणस्थान में होता है और मोह का पूर्ण नाश बारहवें गुणस्थान में होता है; पर मोह की विभिन्न प्रकृतियों का उपशम और क्षय आठवें, नौवें और दशवें गुणस्थान में भी होता जाता है; अतः वहाँ भी यथास्थान जितक्रोधजिन, जितमानजिन, क्षीणक्रोधजिन, क्षीणमानजिन आदि कहा जा सकता है। चूँकि ये सभी प्रकृतियाँ मोहकर्म की ही हैं; अतः उनकी अपेक्षा जितमोहजिन और क्षीणमोहजिन कहने में भी कोई आपत्ति नहीं होना चाहिये ।
दूसरी बात यह भी तो है कि यदि चौथे से सातवें के स्वस्थानअप्रमत्तभाग तक जितेन्द्रियजिनरूप प्रथमस्तुति, ग्यारहवें गुणस्थान में जितमोह जिनरूप द्वितीयस्तुति और बारहवें गुणस्थान में