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समयसार गाथा ३२-३३ अब प्रश्न उपस्थित होता है कि इसे प्रथम प्रकार की निश्चयस्तुति क्यों कहा जा रहा है, क्या कोई दूसर प्रकार की निश्चयस्तुति भी होती है? ___ हाँ, होती है। निश्चयस्तुति तीन प्रकार की होती है। प्रथम प्रकार की निश्चयस्तुति का दिग्दर्शन तो ३१वीं गाथा में हो चुका है और अब ३२वीं व ३३वीं गाथा में दूसरी व तीसरी निश्चयस्तुति की बात होगी।
वे गाथाएँ मूलत: इसप्रकार हैं - जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं। तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया बेंति ॥३२॥ जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स। तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहि ॥ ३३॥
( हरिगीत ) मोह को जो जीत जाने ज्ञानमय निज-आतमा। जितमोह जिन उनको कहें परमार्थ ज्ञायक-आतमा ।। ३२॥ सब मोह क्षय हो जाय जब जितमोह सम्यक् श्रमण का। तब क्षीणमोही जिन कहें परमार्थ ज्ञायक-आतमा॥ ३३॥ जो मुनि मोह को जीतकर अपने आत्मा को ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्यभावों से अधिक जानता है, भिन्न जानता है ; उस मुनि को परमार्थ के जाननेवाले जितमोह कहते हैं।
जिसने मोह को जीत लिया है, ऐसे साधु के जब मोह क्षीण होकर सत्ता में से नष्ट हो, तब उस साधु को निश्चयनय के जानकार क्षीणमोह कहते हैं।