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समयसार अनुशीलन
जब भेदविज्ञान से भिन्नता का ज्ञान हुआ, तब ज्ञेय - ज्ञायकसंकर दोष दूर हुआ। तब मैं तो एक अखण्ड ज्ञायक हूँ, ज्ञेय के साथ मेरा कोई संबंध नहीं है ऐसा अन्दर में स्वसंवेदन ज्ञान हुआ ।
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इसप्रकार यह प्रथम प्रकार की स्तुति का कथन हुआ । ' स्वामीजी के उक्त कथन में सभी बात पूरी तरह स्पष्ट हो गई है । मूलत: प्रकरण देहदेवल में विराजमान भगवान आत्मा देह से अत्यन्त भिन्न है यह चल रहा था । बीच में अप्रतिबुद्ध शिष्य ने स्तुतिसाहित्य का आधार देकर देह और आत्मा को एक बताने का प्रयास किया । इसकारण स्तुति की बात चल पड़ी।
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जब आचार्यदेव ने नयविभाग द्वारा उसे समझाने का प्रयास किया तो व्यवहार स्तुति की बात स्पष्ट हुई।
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तब यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि यदि देह के आधार पर की गई स्तुति व्यवहारस्तुति है तो फिर निश्चयस्तुति क्या है ?
परिणामस्वरूप ३१,३२ एवं ३३वीं गाथा में निश्चयस्तुति का स्वरूप स्पष्ट किया जा रहा है; जिसमें ३१वीं गाथा में प्रथम प्रकार की निश्चयस्तुति की बात जितेन्द्रियजिन के रूप में सामने आई । पर मूल बात दृष्टि से ओझल नहीं हो जावे; अतः ज्ञेय - ज्ञायकंसंकरदोष के परिहार की बात सामने आई और उसके माध्यम से ज्ञेय और ज्ञायक की भिन्नता की चर्चा आ गई।
इसप्रकार यहाँ देह ज्ञेय के प्रतिनिधि के रूप में तथा देहदेवल में विराजमान भगवान आत्मा ज्ञायक के रूप में उपस्थित है । इसप्रकार यह काया और आत्मा की भिन्नता की मूल बात न केवल चल ही रही है, अपितु विस्तार से स्पष्ट हो रही है ।
१. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग
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२, पृष्ठ ४३