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समयसार अनुशीलन ऐसी है, उसने जड़ की पर्याय और चैतन्य की पर्याय को एक माना है। उसीप्रकार शब्द, रूप, रस आदि एक-एक विषय को जानने की योग्यतावाला क्षयोपशमभाव भावेन्द्रिय है । वह भी वस्तुतः परज्ञेय है। परज्ञेय और ज्ञायकभाव की एकताबुद्धि ही संसार है, मिथ्यात्व है।
भावेन्द्रिय के विपय जो सारी दुनिया, स्त्री, कुटुम्ब, देव, शास्त्र, गुरु आदि सभी परपदार्थ हैं, वे इन्द्रियों के विषय होने से इन्द्रिय कहे जाते हैं । वे भी परज्ञेय हैं, इनसे लाभ मानना भी मिथ्याभ्रान्ति है। __द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय और उनके विषय – ये तीनों जानने लायक है और ज्ञायक आत्मा स्वयं जाननेवाला है। ये तीनों ही परज्ञेयरूप से
और भगवान आत्मा स्वज्ञेयरूप से जानने लायक है। चाहे भले ही भगवान सर्वज्ञ परमात्मा हों, उनकी वाणी हो या उनका समवशरण हो - वे सभी अतीन्द्रिय आत्मा की अपेक्षा इन्द्रियाँ हैं, परज्ञेय रूप जानने लायक हैं और आत्मा ग्राहक-जाननेवाला है।
ऐसा होते हुए भी ग्राह्य-ग्राहक लक्षणवाले संबंध की निकटता के कारण अज्ञानी ऐसा मानता है कि वाणी से ज्ञान होता है। ज्ञेयाकाररूप ज्ञान की पर्याय ज्ञान का परिणमन है, ज्ञेय का नहीं, ज्ञेय के कारण भी नहीं; तथापि ज्ञेय-ज्ञायक संबंध की अतिनिकटता है; इसलिए ज्ञेय से ज्ञान हुआ – ऐसा अज्ञानी भ्रम से मानता है।
देखो, द्रव्येन्द्रियों के समक्ष अंतरंग में प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव लिया, भावेन्द्रियों के समक्ष एक अखण्ड चैतन्यशक्ति ली और यहाँ तीसरे बोल में ज्ञेय-ज्ञायकता की निकटता के समक्ष चैतन्यशक्ति का असंगपना लिया।
१. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग - २, पृष्ठ ३६ २. वही,
पृष्ठ ३७-३८ ३. वही,
पृष्ठ ३९