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गाथा ३१
खण्ड रूप होने से, ज्ञान को खण्ड-खण्ड रूप करनेवाली होने से, उन्हें जीतने के लिए प्रतीति में आती हुई अखण्ड चैतन्यशक्ति ली और इन्द्रियों के विषयभूत परज्ञेयों रूप इन्द्रियों को जीतने के लिए स्वयं अनुभव में आनेवाला चैतन्यशक्ति का असंगपना लिया; क्योंकि ज्ञेयज्ञायक की निकटता के कारण, संग के कारण ही तो उनमें एकता का भ्रम हो जाता है।
इसप्रकार यह स्पष्ट हो गया कि निर्मल भेदाभ्यास की प्रवीणता से प्राप्त अंतरंग में प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव, प्रतीति में आती हुई अखण्ड चैतन्य शक्ति और स्वयं अनुभव में आनेवाला चैतन्यशक्ति का असंगपना – ये ऐसे शस्त्र है कि जिनसे न केवल इन्द्रियों को जीता जा सकता है, अपितु ज्ञेय और ज्ञायक को भिन्न-भिन्न भी किया जा सकता है।
इस युग में समयसार और आत्मख्याति का मर्म उद्घाटित करनेवाले आध्यात्मिकसत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी ३१वीं गाथा पर लिखी गई आत्मख्याति टीका का मर्म इसप्रकार उद्घाटित करते हैं -
"जिसप्रकार द्रव्येन्द्रियों को और आत्मा को एक मानना अज्ञान है; उसीप्रकार ज्ञान को खण्ड-खण्ड रूप से बतानेवाली भावेन्द्रियों को और ज्ञायक को एक मानना भी मिथ्यात्व है, अज्ञान है। अलग-अलग अपने-अपने विषयों को जो खण्ड-खण्ड ग्रहण करती हैं और अखण्ड एक ज्ञायक को खण्ड-खण्ड रूप बताती हैं, उन भावेन्द्रियों की ज्ञायक आत्मा के साथ एकता स्थापित करना मिथ्यात्व है।
इस गाथा में ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष के परिहार की बात है। शरीर परिणाम को प्राप्त जड़ इन्द्रियों के परज्ञेय रूप होने पर भी वे मेरी हैं' - ऐसी एकत्वबुद्धि मिथ्याभाव रूप संकरदोष है। जिसकी मान्यता
१. प्रवचनरलाकर (हिन्दी) भाग – २, पृष्ठ ३५-३६