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गाथा ३१
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यह तो भगवान आत्मा के निर्विकल्प अनुभव की बात है ; इसमें तीर्थंकर भगवान की स्तुति कैसे हो गई ? तीर्थंकर भगवान के आत्माश्रित गुणों के माध्यम से उनके स्तवन करने का निश्चय स्तुति कहना चाहिए। जैसा कि समयसार में ही कहा गया है - तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो। केवलिगुणे थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि॥२९॥
( हरिगीत ) परमार्थ से सत्यार्थ ना वह केवली का स्तवन।
केवलिगुणों का स्तवन ही केवली का स्तवन॥२९ ।। उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि यदि आत्मा के गुणों के आधार पर वचनात्मक स्तुति करते तो वह गुणभेद के आधार पर की गई होने से व्यवहार स्तुति ही कहलाती । शरीर के गुणों के आधार पर की गई स्तुति असद्भूतव्यवहारनयोपजनित स्तुति है और आत्मा के गुणों के कथनपूर्वक की गई स्तुति सद्भूतव्यवहारनयोपजनित स्तुति होती। वहाँ असद्भूतव्यवहारनय के विरुद्ध सद्भूतव्यवहारनय खड़ा होता, निश्चयनय नहीं। यहाँ व्यवहार के विरुद्ध निश्चयनय खड़ा करना था; अतः निर्विकल्प-अनुभूति को निश्चय स्तुति कहा गया।
प्रश्न -यह तो ठीक, पर इसे अपने आत्मा की स्तुति तो कह सकते हैं, पर तीर्थंकर भगवान की स्तुति कैसे कह सकते हैं?
उत्तर -आपकी बात तो ठीक है, पर भगवान की आज्ञा भी तो यही है कि तुम आत्मा का अनुभव करो, आत्मा में ही समा जावो; स्वयं पर्याय में भी परमात्मा बन जावो। अत: यह आत्मानुभूति भी उनकी ही आज्ञा का पालन हुआ। सच्ची भक्ति तो आज्ञा का पालन ही है। हम भगवान की आज्ञा का पालन तो नहीं करें और कोरे गुणानुवाद करें तो उसे सच्ची भक्ति कैसे कहा जा सकता है? अत: निज भगवान आत्मा का अनुभव ही सच्ची निश्चयस्तुति है।