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गाथा ३१
द्रव्येन्द्रियाँ हैं । ये तो शरीर के अंग हैं, इसीकारण इन्हें शरीर परिणाम को प्राप्त कहा गया है। ये तो जड़ है, जानने - देखने में असमर्थ हैं । जानने-देखने का काम तो देहदेवल में विराजमान भगवान आत्मा करता है ।
आत्मा के ज्ञान गुण की वह क्षयोपशमदशा, जो इन्द्रियों के माध्यम से जानने-देखने का काम करती है; भावेन्द्रिय कहलाती है । वह भी इन्द्रिय ही है । यह क्षयोपशमरूप भावेन्द्रिय स्पर्शन, रसना आदि द्रव्येन्द्रियों के माध्यम से जिन पदार्थों को जानती है; उन पदार्थों को भी यहाँ इन्द्रिय ही कहा गया है। ध्यान रहे यहाँ इन्द्रियों के माध्यम से दिखाई देने वाले देव, शास्त्र, गुरु; स्त्री, पुत्रादिः मकानादि - सभी पदार्थ इन्द्रिय शब्द में शामिल कर लिये गये हैं ।
देखो तो कैसी गजब की टीका है । गाथा तो अद्भुत् है ही, आत्मख्याति टीका भी कम नहीं है । वह गाथा के मर्म को खोलने में पूर्णत: समर्थ है।
देखो, यहाँ क्या कहा जा रहा है ? आँख तो आँख है ही, पर आँखों से दिखाई देनेवाले पदार्थ भी आँख ही हैं; इसीप्रकार कान तो कान हैं ही, कानों से सुनाई देनेवाले शब्द भी कान ही हैं । इसीप्रकार स्पर्शन, रसना और घ्राण के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए; क्योंकि यहाँ इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों को भी इन्द्रिय कहा जा रहा है । है न गजब की बात?
इसप्रकार यहाँ इन्द्रियों से दिखाई देनेवाले सभी पदार्थ 'इन्द्रिय' शब्द में शामिल हो गये ।
अरे भाई, समयसार में प्रयुक्त होनेवाले शब्दों का अर्थ ही कुछ अलग होता है । अतः यह समयसार ऐसे ही चलते-फिरते समझ में आनेवाला नहीं हैं। इसे समझने के लिए रुचिपूर्वक गहराई से अध्ययन