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समयसार अनुशीलन
284 ग्राह्य - ग्राहकलक्षणवाले संबंध की निकटता के कारण अपने संवेदन के साथ एक जैसे दिखाई देनेवाले भावेन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गये इन्द्रियों के विपयभूत स्पर्शादि पदार्थों को अपनी चैतन्यशक्ति से स्वयमेव अनुभव में आनेवाली असंगता के द्वारा अपने से सर्वथा अलग करना अर्थात् सर्वथा अलग जानना – यह इन्द्रियों के विषयभृत पदार्थों का जीतना हुआ।
इसप्रकार द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों और उनके विषयभूत पदार्थों को जीतकर ज्ञेय-ज्ञायकसंकर दोष के दूर होने से; एकत्व में टंकोत्कीर्ण, विश्व के ऊपर तिरते हुए, प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा अंतरंग में प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वत:सिद्ध और परमार्थरूप भगवान ज्ञानस्वभाव के द्वारा परमार्थ से सर्व अन्य द्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा का जो अनुभव करते हैं; वे निश्चय से जितेन्द्रियजिन हैं।"
इस गाथा में जितेन्द्रियजिन, ज्ञेय-ज्ञायकसंकरदोष का परिहार और निश्चय स्तुति - इन तीन बातों को एक साथ सम्मिलित किया गया है। जो इन्द्रियों को जीतता है, उसे जितेन्द्रियजिन कहते हैं और इन्द्रियों को जीतना ही प्रथम प्रकार की निश्चय स्तुति है तथा वह ज्ञेयज्ञायकसंकरदोष के परिहारपूर्वक होती है। इसप्रकार ये तीनों बातें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं । इस गाथा का मर्म जानने के लिए उक्त तीनों बातों को गहराई से समझना अत्यन्त आवश्यक है।
इन्द्रियों के जीतने का अर्थ सामान्यत: लोग पंचेन्द्रियों के भोगों को त्यागना मानते हैं; इसकारण जितेन्द्रिय बनने के लिए उन्हें छोड़ने का प्रयत्न करते हैं; पर वे यह नहीं जानते है कि यहाँ तो इन्द्रियों से भिन्न ज्ञायकस्वभावी निजभगवान आत्मा को जानना, उसमें अपनत्व स्थापित करना, आत्मानुभूति प्राप्त करना ही इन्द्रियों को जीतना है। _ 'इन्द्रिय' शब्द का अर्थ भी मात्र दिखाई देने वाले आँख-कान आदि नहीं हैं। स्पर्शन, रसना, ध्राण, चक्षु और कर्ण - ये पाँच तो मात्र