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समयसार गाथा ३१ अव प्रश्न उठता है कि यदि यह व्यवहारस्तुति है तो निश्चयस्तुति क्या है ? इसी प्रश्न के उत्तर में ३१-३२-३३वीं गाथाओं का जन्म हुआ है; जिनमें प्रथम प्रकार की निश्चयस्तुति का स्वरूप बतानेवाली ३१वीं गाथा इसप्रकार है -
जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आद। तं खलु जिदिंदियं ते भणन्ति जे णिच्छिदा साहू ॥३१॥
( हरिगीत ) जो इन्द्रियों को जीत जाने ज्ञानमय निज आतमा।
वे हैं जितेन्द्रिय जिन कहें परमार्थ साधक आतमा॥ ३१॥ जो इन्द्रियों को जीतकर आत्मा को अन्य द्रव्यों से अधिक (भिन्न) जानते हैं; वे वस्तुत: जितेन्द्रिय हैं - ऐसा निश्चयनय में स्थित साधुजन कहते हैं।
यह निश्चयस्तुति का निरूपण है। यह प्रथम निश्चयस्तुति है, जो ज्ञेय-ज्ञायकसंकर दोष के परिहारपूर्वक होती है।
ज्ञायक माने जानने-देखने के स्वभाववाला भगवान आत्मा और ज्ञेय माने जानने में आने वाले पदार्थ । जाननेवाला भगवान आत्मा अलग है
और जानने में आने वाले परपदार्थ अलग हैं; पर अज्ञानीजीव उन्हें भिन्न-भिन्न न जानकर दोनों को एक ही मान लेते हैं। उनका यह मानना ज्ञेय-ज्ञायकसंकर दोष से दूषित है।
यद्यपि अपना भगवान आत्मा ज्ञायक के साथ-साथ ज्ञेय भी है; क्योंकि वह जानता भी है और जानने में भी आता है; पर यहाँ निजज्ञेय की बात नहीं है, परज्ञेयों की बात है।