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समयसार अनुशीलन
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इस सम्पूर्ण प्रकरण में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह प्रकरण भेदविज्ञान का है, देह से एकत्व के व्यामोह को छुड़ाने का है; स्तुति की चर्चा तो बीच में उदाहरण के रूप में आ गई है, शिष्य के प्रश्न के आधार पर आई है और नयविभाग के आधार पर उसका समाधान कर दिया गया है। ___ यद्यपि स्तुति साहित्य में देह को आधार बनाकर तीर्थंकर भगवान
का अपरिमित गुणानुवाद किया गया है, तथापि यह बात भी हाथ पर रखे आँवले के समान स्पष्ट है कि देह और आत्मा परमार्थतः भिन्नभिन्न ही हैं। अत: देह के आधार पर की गई स्तुति मात्र उपचार ही है, व्यवहार ही है; उसके आधार पर देह और आत्मा को एक मानने की बात करना नयविभाग के अज्ञान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। __ भक्तामर स्तोत्र में भगवान आदिनाथ की स्तुति करते हुए मानतुंगाचार्य तो यहाँ तक लिखते हैं कि -
( वसंततिलका ) "यैः शान्त-राग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं
निर्मापितस्त्रिभुवनैकललामभूत। तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां,
यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति। हे तीनलोक में सर्वश्रेष्ठ आदिनाथ भगवान ! राग उत्पन्न करने वाले, रुचिकर जिन शान्त परमाणुओं से आपका निर्माण हुआ है; वे परमाणु सम्पूर्ण पृथ्वी में मात्र उतने ही थे। यही कारण है कि आपके समान शान्त, सुन्दर और रुचिकर रूपवाला कोई अन्य व्यक्ति दिखाई नहीं देता।"
उक्त छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखा गया है कि आपका निर्माण शान्त, रुचिकर और रागोत्पादक सुन्दर परमाणुओं से हुआ है।