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गाथा ३०
जिनका आसन और मन अचल है; ऐसे जिनदेव जगत में जयवंत बर्ते कि जिनकी भक्ति महान पुण्य का फल है और पुण्यदायक है।
शरीर का नाम जिनेश्वर नहीं है, जिनेश्वर तो चेतन का नाम है। शरीर का वर्णन जिनदेव का वर्णन नहीं है, जिनदेव का वर्णन तो कुछ
और ही है। ___ यहाँ एक प्रश्न संभव है कि नगर की सुन्दरता एवं सुव्यवस्था राजा का ही तो कार्य है; सुयोग्य राजा के बिना नगर का सुव्यवस्थित होना संभव नहीं है । अत: नगर की प्रशंसा एक प्रकार से राजा की ही प्रशंसा है। इसीप्रकार देह का सुन्दर होना, सुगठित होना, सुव्यवस्थित होना भी तो उसमें रहनेवाले आत्मा के पुण्योदय का सूचक है; अत: देह के आधार पर की गई स्तुति को सर्वथा अस्वीकार कैसे किया जा सकता है? __ अरे भाई, हमने सर्वथा अस्वीकार कहाँ किया है? व्यवहार से तो उसे तीर्थंकर केवली की स्तुति माना ही है। हाँ, निश्चयनय से, परमार्थ से अवश्य अस्वीकार किया है और वह सबप्रकार से ठीक ही है; क्योंकि निश्चय से तो शरीर के गुण आत्मा के गुण हो ही नहीं सकते। अत: निश्चय से शरीर के आधार पर की गई स्तुति को तीर्थंकर केवली की स्तुति कैसे माना जा सकता है? __ प्रश्न - यदि यह बात है तो फिर निश्चयस्तुति क्या है, निश्चयस्तुति का वास्तविक स्वरूप क्या है?
उत्तर – इसी के उत्तर में ३१,३२ और ३३वीं गाथाएं लिखी गई हैं । अत: निश्चय स्तुति की विस्तृत चर्चा उनकी चर्चा के अवसर पर होगी ही; यहाँ तो इतना समझना ही पर्याप्त है कि देह के आधार पर की गई तीर्थंकरों की स्तुति को आधार बनाकर देह और आत्मा को निश्चय से भी एक मानना उचित नहीं है, अज्ञान है, मिथ्यात्व है। इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।