________________
277
कलश २५.२६
नित्यमविकारसुस्थितसर्वांगमपूर्वसहजलावण्यम् । अक्षोभमिवसमुद्रं जिनेन्द्ररूपं परं जयति ॥२६॥
( हरिगीत ) प्राकार से कवलित किया जिस नगर ने आकाश को। अर गोल गहरी खाई से है पी लिया पाताल को॥ सब भूमितल को ग्रस लिया उपवनों के सौन्दर्य से। अद्भुत अनूपम अलग ही है वह नगर संसार से॥२५॥ गंभीर सागर के समान महान मानस मंगमय। नित्य निर्मल निर्विकारी सुव्यवस्थित अंगमय ।। सहज ही अद्भुत् अनूपम अपूरव लावण्यमय। क्षोभ विरहित अर अचल जयवंत जिनवरचन्द हैं ।। २६ ।। ऊँचे कोट, गहरी खाई और बाग-बगीचों से सम्पन्न इस नगर ने मानों कोट के बहाने आकाश को ग्रस लिया है, खाई के बहाने पाताल को पी लिया है और बाग-बगीचों के बहाने सम्पूर्ण भूमितल को निगल लिया है । तात्पर्य यह है कि इस नगर की सुरक्षा का साधन कोट अत्यन्त ऊँचा है और जल से लवालव भरी हुई खाई अत्यन्त गहरी है तथा सम्पूर्ण नगर मनोहारी बाग-बगीचों से परिपूर्ण है। सब कुछ मिलाकर यह नगर पूर्वतः सुरक्षित एवं मनोहारी है।
जिसमें अपूर्व और स्वाभाविक लावण्य है, जो समुद्र की भाँति क्षोभ रहित है और जिसमें सभी अंग सदा सुस्थित और अविकारी है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान का उत्कृष्ट रूप सदा जयवंत वर्तता है।
उक्त कलशों एवं सम्पूर्ण प्रकरण के भाव को स्पष्ट करते हुए कविवर पण्डित बनारसीदासजी लिखते हैं -
( सवैया इकतीसा ) ऊँचे-ऊँचे गढ़ के कंगूरे यौं विराजत हैं,
मानौं नभ लोक गीलिवे कौं दांत दीयौ है। सोहै चहुँ ओर उपवन की सघनताई,
घेरा करि मानौ भूमिलोक घेरि लीयौ है।