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समयसार गाथा ३०
यहाँ एक प्रश्न यह भी संभव है कि जब शरीर में ही भगवान आत्मा विराजता है, एकप्रकार से जब वह शरीर का अधिष्ठाता ही है; तब निश्चय से शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन क्यों नहीं हो सकता? इसी प्रश्न के उत्तर में ३०वीं गाथा का जन्म हुआ है; जो इसप्रकार
यरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति ॥ ३० ॥
( हरिगीत )
वर्णन नहीं है नगरपति का नगर वर्णन जिसतरह ।
केवली - वन्दन नहीं है देह-वन्दन उसतरह ॥ ३० ॥ जिसप्रकार नगर का वर्णन करने पर भी, वह वर्णन राजा का वर्णन नहीं हो जाता; उसीप्रकार शरीर के गुणों का स्तवन करने पर केवली के गुणों का स्तवन नहीं हो जाता ।
उक्त गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने विशेष कुछ नहीं लिखा है; पर नगर वर्णन और जिनेन्द्र वर्णन के सन्दर्भ में नमूने के रूप में दो आर्या छन्द अवश्य लिखे हैं और अन्त में लिख दिया है कि जिसप्रकार नगर का वर्णन करने से उसके अधिष्ठाता राजा का वर्णन नहीं हो जाता, उसीप्रकार शरीर की स्तुति करने से उसके अधिष्ठाता तीर्थंकर भगवान की स्तुति भी नहीं हो सकती है ।
वे छन्द मूलतः इसप्रकार हैं
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( आर्या )
प्राकारकवलितांबरमुपवनराजीनिगीर्णभूमितलम् । पिबतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम् ॥ २५ ॥