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समयसार अनुशीलन
गाथाओं और टीका के अध्ययन से यह बात पूर्णत: स्पष्ट हो जाती है कि शरीर के रूपादि गुणों के आधार पर जो केवली भगवान का स्तवन शास्त्रों में पाया जाता है; वह सब असद्भूतव्यवहारनय का ही कथन है; परमार्थ से तो वह असत्यार्थ ही है। ___ यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यदि व्यवहार असत्यार्थ है तो फिर शास्त्रों में इसप्रकार की स्तुतियाँ क्यों पाई जाती हैं?
इस प्रश्न के समाधान के लिए जयचन्दजी छाबड़ा द्वारा लिखित भावार्थ देखना उपयोगी रहेगा, जो इसप्रकार है - __"यहाँ कोई प्रश्न करे कि व्यवहारनय को तो असत्यार्थ कहा है
और शरीर जड़ है, तब व्यवहाराश्रित स्तुति का क्या फल है? ___ उसका उत्तर यह है कि व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नहीं है, उसे निश्चय को प्रधान करक असत्यार्थ कहा है। और छद्मस्थ को अपना
और पर का आत्मा साक्षात् दिखाई नहीं देता है, शरीर दिखाई देता है; उसकी शान्तरूप मुद्रा देखकर अपने को भी शान्त भाव होते हैं । ऐसा उपकार समझकर शरीर के आश्रय से भी स्तुति की जाती है तथा शान्तमुद्रा को देखकर अन्तरंग में वीतरागभाव का निश्चय होता है - यह भी उपकार है।"
यद्यपि यह बात सत्य है कि शरीर आत्मा नहीं है, तथापि यह भी सत्य ही है कि अरहंत अवस्था में भगवान आत्मा शरीर में ही विराजता है, एकप्रकार से वह शरीर का अधिष्ठाता ही है। देहादि संबंधी अतिशयों में भी आत्मा का पुण्योदय निमित्त होता है । अत: देहादि के आधार पर की गई स्तुति को सर्वथा नकारना संभव नहीं है।
दूसरी बात यह है कि भव्यजनों को अमूर्तिक आत्मा तो दिखाई देता नहीं है ; उन्हें तो उस देह के ही दर्शन होते हैं, जिसमें वह भगवान आत्मा विराजमान है। अत: व्यवहार से उस देहदर्शन को ही देवदर्शन कहते हैं।