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समयसार अनुशीलन
दो तीर्थंकर कुन्दपुष्प, चन्द्रमा, बर्फ एवं मुक्ताहार के समान श्वेत वर्ण वाले हैं; दो तीर्थंकर इन्द्रनीलमणि के समान नीलवर्ण के हैं; दो तीर्थंकर बन्धूकपुष्प के समान लाल वर्णवाले हैं; दो तीर्थंकर प्रियंगु पुष्प के समान हरे रंग के हैं और शेष सोलह तीर्थंकर स्वर्ण के समान वर्णवाले हैं।
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ये सभी तीर्थंकर जन्म-मृत्यु से रहित हैं, सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य हैं और देवों से वन्दनीय हैं। ये सभी हमें सिद्धि प्रदान करें । "
उक्त छन्द का लोकप्रचलित हिन्दी भावानुवाद इसप्रकार है ( दोहा )
दो गौरे दो लाल हैं दो हरियल दो श्याम । सोलह कंचनवरण हैं बन्दों आठों याम ॥ आचार्यों की स्तुति से सम्बन्धित वह गाथा मूलतः इसप्रकार है "देसकुलजाइसुद्धा विसुद्धमणवयणकाय संजुत्ता ।
तुम्हं पायपयोरुहमिह मंगलमत्थु मे णिच्चं ॥
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देश, कुल और जाति से शुद्ध मन, वचन और काय की विशुद्धता से संयुक्त हे आचार्यदेव ! आपके चरणकमल इस लोक में मेरे लिए नित्य मंगलमय हों । '
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उक्त दोनों उद्धरणों में तीर्थंकर अरहंत एवं आचार्यदेव की स्तुति शरीराश्रित गुणों के आधार पर ही की गई है । और भी अनेक उद्धरण इसप्रकार के उपलब्ध होते हैं । ये सभी स्तुतियाँ भी समर्थ मुनिराजों और ज्ञानी विद्वानों द्वारा लिखी गई हैं । यदि देह को ही आत्मा नहीं माना गया तो ये सभी स्तुतियाँ गलत सिद्ध होगी । अतः यह ठीक ही है कि हम यह स्वीकार कर लें कि शरीर ही आत्मा है। हमारा तो एकान्त से यही निश्चय है ऐसा अप्रतिबुद्ध का कहना है ।
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१. दशभक्ति : आचार्यभक्ति : धर्मध्यान दीपक; पृष्ठ ३१० ( प्रकाशकशान्तिवीरनगर, महावीरजी
राजस्थान )