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कलश २४
जाकी दिव्यधुनि सुनि श्रवण कौं सुख होत,
जाके तनलच्छन अनेक आइ दुके हैं। तेई जिनराज जाके कहे विवहार गुन, - निहचै निरखि सुद्ध-चेतन सौं चुके हैं। जिसके शरीर की कान्ति से दशों दिशायें पवित्र हो गई हैं, प्रकाशित हो गई हैं; जिसके शरीर के तेज से सभी तेजवंत पदार्थ अवरुद्ध हो गये हैं; जिसके शरीर के रूप को देखकर महारूपवान भी थक गये हैं, हार गये हैं; जिसके शरीर की सुगंध से सभी सुगंधियाँ छिप गई हैं; जिनकी दिव्यध्वनि को सुनकर कानों को सुख प्राप्त होता है, जिनके वचन कर्णप्रिय हैं; जिनके शरीर में अनेक शुभलक्षण प्रगट हो गये हैं; वे जिनराज हैं।
ये शारीरिक गुण जिन जिनराज तीर्थंकर भगवान के व्यवहार से बताये गये हैं; यदि निश्चय से विचार करें तो ये शारीरिक गुण जिनराज के नहीं हैं, तीर्थंकर भगवान के नहीं हैं, भगवान आत्मा के नहीं हैं । ___ आचार्य जयसेन इस बात को स्पष्ट करने के लिए न तो किसी स्वतंत्र छन्द की रचना करते हैं और न आचार्य अमृतचन्द्र के उक्त छन्द को ही उद्धृत करते हैं; अपितु तीर्थंकरों और आचार्यों की स्तुति में स्तुतिसाहित्य में प्रसिद्ध छन्द और गाथा के आरंभिक अंशों को उद्धृत कर अपनी बात को स्पष्ट करते हैं । तीर्थंकरों की स्तुति के लिए जिस छन्द का आरंभिक अंश उद्धृत किया है, चौबीस तीर्थंकरों के शरीर के रंग का वर्णन करनेवाला वह छन्द मूलतः इसप्रकार है -
( शार्दूलविक्रीड़ित ) "द्वौ कुन्देन्दुतुषारहारधवलौ द्वाविन्द्रनीलप्रभौ। द्वौ बन्धूकसमप्रभौ जिनवृषौ द्वौ च प्रियङ्ग प्रभौ॥ शेषाः षोडश जन्ममृत्युरहिताः संतप्तहेमप्रभा।
स्ते संज्ञानदिवाकराः सुरनुताः सिद्धिं प्रयच्छन्तु नः॥ १. मंगलाष्टक : ज्ञानपीठ पूजान्जली, पृष्ठ ६७