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समयसार गाथा २६ जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरिय संथुदी चेव। सव्वा वि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो ॥२६॥
(हरिगीत ) यदि देह ना हो जीव तो तीर्थंकरों का स्तवन। सब असत् होगा इसलिए बस देह ही है आतमा॥२६॥ अज्ञानी जीव कहता है कि यदि जीव शरीर नहीं है तो तीर्थंकरों और आचार्यों की जिनागम में जो स्तुति की गई है; वह सभी मिथ्या है। इसलिए हम समझते हैं कि देह ही आत्मा है। _ पिछली गाथाओं में देह और आत्मा की भिन्नता की बात विस्तार से समझाई गई है और यह प्रेरणा भी दी गई है कि हे भाई तू कैसे भी करके मरपच के भी इस देह से एकत्व के मोह को छोड़ दे।
उक्त संदर्भ में अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) का कहना यह है कि जैनशास्त्रों में देह के गुणों के आधार पर भी तीर्थंकर भगवन्तों एवं आचार्यों की स्तुति की गई है, ऐसी स्थिति में यदि देह को जीव नहीं मानेंगे तो वह स्तुति मिथ्या सिद्ध होगी। अत: भलाई इसी में है कि हम देह को ही जीव स्वीकार कर लें। _ आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा की आत्मख्याति टीका लिखते हुए एक छन्द के माध्यम से यह स्पष्ट करते हैं कि देह के आश्रय से तीर्थंकरों और आचार्यों की स्तुति किसप्रकार की जाती है। वह छन्द इसप्रकार है -
( शार्दूलविक्रीड़ित ) कात्यैव स्नपयन्ति ये दशदिशो धाम्ना निरुंधति ये। धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णंति रूपेण ये॥