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गाथा २७.
उक्त कथन के माध्यम से आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि देह के गुणों के आधार पर की गई तीर्थंकरों और आचार्यों की स्तुति व्यवहारनय से सत्यार्थ है; क्योंकि व्यवहारनय से तो जीव और देह एक ही हैं । इसप्रकार वह स्तुति मिथ्या सिद्ध नहीं होगी । साथ ही यह बात भी है कि वह स्तुति मात्र व्यवहार से ही सत्यार्थ है । यदि कोई व्यक्ति निश्चय से भी उसे सत्य समझ ले तो वह मिथ्यादृष्टि ही रहेगा; क्योंकि फिर तो वह उसके आधार पर देह और जीव को निश्चय से भी एक ही मान लेगा और ऐसा मानने को तो जैनदर्शन में मिथ्यात्व कहा गया है। छहढाला में तो साफ-साफ कहा गया है कि - __ "देह जीव को एक गिने बहिरातम तत्त्वमुधा है। - देह और जीव को एक माननेवाला जीव बहिरात्मा है, तत्त्व के बारे में मूढ़ है।"
आत्मख्याति में सोने और चाँदी का उदाहरण देकर इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट किया गया है__ "जिसप्रकार लोक में सोने और चाँदी को गलाकर एक कर देने से एक पिण्ड का व्यवहार होता है; उसीप्रकार आत्मा और शरीर की एकक्षेत्र में एक साथ रहने की अवस्था होने से एकपने का व्यवहार होता है। इसप्रकार मात्र व्यवहार से ही आत्मा और शरीर का एकपना है, परन्तु निश्चय से एकपना नहीं है; क्योंकि निश्चय से तो पीले स्वभाववाला सोना और सफेद स्वभाववाली चाँदी के परस्पर अत्यन्त भिन्नता होने से उनमें एक पदार्थपने की असिद्धि ही है; अत: उनमें अनेकत्व ही है। इसीप्रकार उपयोगस्वभावी आत्मा और अनुपयोगस्वभावी शरीर में अत्यन्त भिन्नता होने से एकपदार्थपने की असिद्धि ही है; अत: अनेकत्व ही है। - ऐसा यह प्रगट नयविभाग है; अत: यह सुनिश्चित ही है कि व्यवहारनय से ही शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन होता है, निश्चयनय से नहीं।"
आगे की तीन गाथाओं में इसी बात को सतर्क व सोदाहरण स्पष्ट किया गया है। अतः यहाँ विशेष विस्तार की आवश्यकता नहीं है।