________________
260
समयसार अनुशीलन
संसारसागर की एक बूंद भी कम नहीं होती और अपने आत्मा को अनुभवपूर्वक जानने से सम्पूर्ण संसारसागर सूख जाता है । अत: हे भव्यजीवो ! कौतूहल में ही सही एकबार आत्मा को जानने का पुरुषार्थ तो-करो । आत्मतत्त्व का कौतूहली बनकर और शरीरादि परपदार्थों का पड़ौसी बनकर एकबार आत्मा का अनुभव करके तो देखो, तुम्हारा जीवन बदल जावेगा ।
अबतक तो तुमने देह में एकत्वबुद्धि की है, अहंबुद्धि की है, ममत्वबुद्धि की है, स्वामित्वबुद्धि की है; पर इससे अनन्तदुखों के अलावा तुम्हें क्या मिला ? एकबार इस बात पर गंभीरता से विचार करो और एकबार इस देह के पड़ौसी बनकर देखो तो तुम्हारा इसमें जो एकत्व का मोह है, वह अवश्य ही टूट जावेगा, छूट जावेगा और अतीन्द्रिय आनन्द की कणिका जगेगी, जो आगे जाकर आनन्द के सागर में परिणमित हो जावेगी ।
जिसप्रकार हम पड़ौसी को अपना भी नहीं मानते और उससे असद्व्यवहार भी नहीं करते; उसीप्रकार इस देह में एकत्वबुद्धि भी नहीं रखना और इससे असद्व्यवहार भी नहीं करना । इससे पड़ौसी धर्म तो निभाना, पर इसे अपने घर में नहीं बिठा लेना । हमें पक्का विश्वास है कि यदि तुम एकबार भी परद्रव्यों से भिन्न अपने भगवान आत्मा का विलास देखोगे, वैभव देखोगे, तो अवश्य ही पर से एकत्व के मोह को छोड़ दोगे । अतः भाई ! तुम हमारी बात सुनो और एकबार आत्मतत्त्व के कौतूहली बनकर उसे देह से भिन्न अनुभव करो; तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा ।
यदि पड़ौसी का जीवन खतरे में हो तो हम उसकी सुरक्षा करते हैं, उसे जीवनयापन में सहज सहयोग करते हैं; पर उसके लिए अपना जीवन बरबाद नहीं करते; उसके लिए भोगसामग्री नहीं जुटाते । इसीप्रकार इस देह की सुरक्षा के लिए शुद्धसात्विक आहार का ग्रहण