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समयसार अनुशीलन
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जो ज्ञानपर्याय जिस आत्मद्रव्य की है, उस ज्ञानपर्याय ने उसी आत्मद्रव्य को ज्ञेय न बनाकर जो राग उसमें नहीं है, उस राग को ज्ञेय बनाया और उसी में एकत्वबुद्धि की - यही मिथ्यात्व है। ऐसी मान्यतावाले जीव मिथ्यादृष्टि हैं। पूर्णानन्द के नाथ त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा को दृष्टि में लेकर 'यह आत्मा मैं हूँ' - ऐसा जिस पर्याय ने स्वीकार किया, वह पर्याय सत्य हुई; क्योंकि उस पर्याय में सत्य की स्वीकृति है; और यही पर्याय सम्यग्दर्शन है, धर्म है। ___ यह शरीर, स्त्री, लड़का, ग्राम और देश तो कितने दूर हैं, प्रगट पर हैं; जो इनको भी अपना माने, उनकी मूर्खता का तो कोई ठिकाना नहीं। प्रभु! यह तो तेरी मूल में ही भूल है। यहाँ तो सूक्ष्म बात की है। यह जीव-अधिकार है; इसलिए कहते हैं कि ये व्रत-तप आदि के विकल्प अजीव हैं, जीव नहीं; क्योंकि यदि ये जीव हों तो भिन्न नहीं हो सकते, किन्तु ये तो भिन्न हो जाते हैं; अत: ये दोनों सर्वथा जुदे-जुदे हैं, किसी भी प्रकार एक नहीं हैं।" ___ आचार्यदेव सर्वज्ञ भगवान की साक्षी देकर समझाते हैं कि सर्वज्ञभगवान के ज्ञान में तो यह आया है कि जीव सदा ही उपयोगलक्षणवाला है और पुद्गल में, रागादि में ज्ञानदर्शन-उपयोग है ही नहीं; फिर तू उसे अपना कैसे कह सकता है ? अतः अब तू पुद्गल को, रागादि को अपना मानना छोड़ और उससे भिन्न ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा का अनुभव कर।
यही बात आगामी कलश में भी कही जा रही है कि कैसे भी हो, मरपच कर भी; देह से भिन्न निज भगवान आत्मा का अनुभव कर।
आत्मानुभव की पावन प्रेरणा देनेवाला वह कलश मूलतः इसप्रकार है - १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ ३६२ २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ ३६९