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समयसार अनुशीलन
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इन गाथाओं के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रदेव का हृदय आन्दोलित हो उठा है। तभी तो वे एक ओर हे दुरात्मन्' इस शब्द का उपयोग करते हैं वहीं दूसरी ओर प्रसीद"विबुध्यस्व' इन प्रेरणादायक कोमल शब्दों का उपयोग करते हैं, जिसका अर्थ होता है प्रसन्न होवो, चित्त को शान्त करो; समझो, सावधान होवो; नादानी न करो।
इसके तत्काल बाद जो कलश उन्होंने लिखा है, उसमें भी अत्यन्त कोमल शब्दों में समझाया है।
टीका में गाथा का भाव एकदम स्पष्ट हो गया है; क्योंकि इसमें स्फटिक पाषाण, हाथी आदि पशु, नमक के पानी तथा प्रकाश और अंधकार का उदाहरण देकर बात को एकदम सरल एवं बोधगम्य बना दिया गया है।
यद्यपि स्फटिक पाषाण एकदम निर्मल होता, स्वच्छ होता है; तथापि अनेक पदार्थों के संयोग के कारण अनेक रंगोंमय दिखाई देता है; उसका मूल-स्वभाव तिरोहित हो जाता है, दिखाई नहीं देता है; इसकारण स्फटिक के स्वभाव को न जाननेवाले लौकिकजन उसे अनेक वर्णवाला ही मान लेते हैं।
उसीप्रकार भेदविज्ञान की ज्योति से रहित अज्ञानीजन भी आत्मा के मूलस्वभाव को निर्मल - स्वच्छस्वभाव को न जानने के कारण अनादिबंधन की उपाधि से होनेवाले विभावभावों को ही आत्मा का स्वभाव मान लेते हैं और इसीकारण पुद्गलद्रव्य में अपनापन स्थापित कर लेते हैं।
जिसप्रकार हाथी आदि पशु अनाज मिश्रित घास खाते हैं; पर उस मिश्रितस्वाद में यह भेद नहीं कर पाते हैं कि इसमें घास का स्वाद क्या है और अनाज का स्वाद क्या है । वे उस मिश्रितस्वाद को घास का ही स्वाद समझते हैं; इसीप्रकार आत्मा और पुद्गल को एक साथ