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कलश २३
अवश्य करो; पर इसके पीछे अभक्ष्यादि का भक्षण कर नर्क - निगोद जाने की तैयारी मत करो। इसे शत्रु भी मत मानो, इससे शत्रु जैसा व्यवहार भी मत करो और घरवाला भी मत मानो, घरवालों जैसा भी व्यवहार न करो। बस, पड़ौसी जैसा व्यवहार करो - यही उचित है ।
इसके लिए जीवन का सर्वस्व समर्पण करना उचित नहीं है, सर्वस्व समर्पण तो निज भगवान आत्मा पर ही करना है ।
इसमें एक मुहूर्त अर्थात् दो घड़ी आत्मा का अनुभव करने की बात कही है; क्योंकि एक अन्तर्मुहूर्त तक आत्मध्यान करने से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है । इसी बात को ध्यान में रखकर पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा इसी कलश के भावार्थ में लिखते हैं
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" यदि यह आत्मा दो घड़ी पुद्गलद्रव्य से भिन्न अपने शुद्धस्वरूप का अनुभव करे ( उसमें लीन हो ) परीषह आने पर भी डिगे नहीं, तो घातियाकर्म का नाश करके, केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष को प्राप्त हो । जब आत्मनुभूति की ऐसी महिमा है, तब मिथ्यात्व का नाश करके सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होना तो सुगम ही है। इसलिए श्रीगुरु ने प्रधानता से यही उपदेश दिया है।"
प्रश्न – केवलज्ञान तो अन्तर्मुहूर्त में होता है, किन्तु यहाँ एक मुहूर्त तक अनुभव करने की बात कही है। ऐसा क्यों है ?
उत्तर - अन्तर्मुहूर्त माने मुहूर्त के भीतर ही । जब एक मुहूर्त के भीतर ही केवलज्ञान होता है तो फिर जो एक मुहूर्त लगातार आत्मध्यान करेगा, उसके तो होना ही है । अतः इसप्रकार के कथन में कोई दोष नहीं है ।
ध्यान रहे, एक घड़ी २४ मिनट की होती है और दो घड़ियों का एक मुहूर्त होता है।
प्रश्न – कलश टीका में तो अनुभव को सहजसाध्य कहा है और
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यहाँ आचार्य उग्र पुरुषार्थ करने की बात कह रहे हैं ?